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242 / जैन धर्म और दर्शन
कर्जयुक्त, नपुंसक, व्याधिग्रस्त, पागल, मूढ़ और विषय लोलुपी मनुष्य मुनिव्रत की पात्रता नहीं रखते।" किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक विकृति से युक्त जाति और कर्म से दूषित, अतिबाल और अतिवृद्ध मनुष्य को भी मुनिव्रत नहीं दिया जाता।
कैसे होते हैं जैन मुनि? वैसे तो जैन मुनि का कोई वेश नहीं होता, निर्वेश रहना ही उनका वेश है। किंतु बाहर से जहां कहीं भी जन्म लेने वाले शिशु की तरह यथाजात निर्विकार नग्न मुद्रा दिखाई पड़े, जिनके सिर और दाड़ी-मूंछों के बाल हाथ से उखाड़े गए हों,तथा जिनका शरीर किसी प्रकार से संस्कारित/अलंकृत न हो,मात्र हाथ में मयूर पंखों से निर्मित सुकोमल पिच्छि और काष्ठ निर्मित कमंडलु हो इसके अतिरिक्त तिलतुष मात्र भी न हो, समझ लीजिए वह जैन मुनि है। यह जैन मुनि का बाहरी चिह्न है तथा ममत्व और आरंभ से रहित योग और उपयोग की शुद्धिपूर्वक सब प्रकार से निरपेक्ष और निरीह होकर अपने ज्ञान और ध्यान में लगे रहना यह जैन साधु की भीतरी पहचान है।
अट्ठाइस मूलगुण उपर्युक्त चिह्नों से भूषित जैन मुनि सतत् अपनी आत्म-साधना में प्रवृत्त रहते हैं। उनका साधना क्रम अत्यंत व्यवस्थित रहता है । इसके लिए जैन मुनियों के अट्ठाईस मूल गुण बताये गये हैं। वे हैं-पांच महाव्रत.पांच समिति.पांच इंद्रिय निरोध,छह आवश्यक. अदन्त धावन, अस्नान भूमिशयन, एक भूक्ति, स्थिति भोजन (खड़े-खड़े भोजन) केशलुंचन और नग्नता।' इन अट्ठाईस मूल गुणों का पालन प्रत्येक जैन मुनि को अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। इससे उनकी चर्या व्यवस्थित हो जाती है और वे साधना के मार्ग पर बने रहते हैं। ये मूल गुण मुनिव्रत की मूल अर्थात् जड़ हैं । इनका पालन करने पर ही मुनित्व सुरक्षित रह सकता है। इन मूल गुणों की विस्तृत व्याख्या निम्न प्रकार है
___ 1. पांच महाव्रत : हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का प्रतिज्ञापूर्वक पूर्णरूपेण परित्याग करना पांच महाव्रत कहलाता है। अणुव्रतों की अपेक्षा यह व्रत बहुत बड़े हैं। इनका पालन करना अत्यंत कठिन है। उच्च मनोबल वाले महापुरुष ही इनका पालन कर सकते हैं। इसलिए इन्हें महाव्रत कहा जाता है। इसमें अहिंसा आदि का पालन अत्यंत सूक्ष्मता से किया जाता है। आध्यात्मिक जीवन-यात्रा के लिए यह अनिवार्य है।।
अहिंसा महाव्रत : जैन मुनि अहिंसा महाव्रत के पालन के लिए सूक्ष्म तथा बादर, त्रस एवं स्थावर सभी जीवों की हिंसा का मन, वचन, काय से त्याग कर देते हैं । इस महावत के धारण करने के बाद स्थावर जीवों में न तो पृथ्वी खोदते हैं,न ही अग्नि सुलगाते और तापते
1. (अ) वही, 8/52
(ब) आ सा 11 2. मूचा 908 3. प्रसा 205-206 4. (अ) वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सय मचेलमण्हाण ।