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18 / जैन धर्म और दर्शन
अपितु अपने सत्कर्मों से ही वह महान् बन पाता है। मानव मात्र के प्रति समान दृष्टि रखकर की जानेवाली इस समाज व्यवस्था में ब्राह्मणस्व आदि जातियों का प्रमुख आधार वर्ग विशेष में जन्म न होकर अहिंसादिक सवतों के संस्कार ही हैं। इस मान्यता के अनुसार जिनमें अहिंसा, दया आदि सव्रतों के संस्कार विकसित हों वे ब्राह्मण,पर की रक्षा की वृत्ति वाले क्षत्रिय, कृषि, वाणिज्यादि व्यापार प्रधान वैश्य तथा शिल्प सेवादि कार्यों से अपनी आजीविका करनेवाले शूद्र हैं। कोई भी शूद्र अपने व्रत आदि सद्गुणों का विकास कर बाह्मण बन सकता है। ब्राह्मणत्व का आधार व्रत संस्कार है न कि नित्य ब्राह्मण जाति ।।
कर्मणा वर्ण व्यवस्था स्वीकार कर जैन दर्शन ने ऐसे समाज की व्यवस्था दी है जिसमें न तो किसी वर्ग विशेष को संप्रभुता प्रदान कर विशेष संरक्षण प्रदान किया गया है,न ही किसी को हीन बताकर उसे अनावश्यक शोषण का शिकार बनाया गया है। मानव मात्र प्रति सम भूमिका के आधार पर की जानेवाली इस सामाजिक व्यवस्था को हम समता मूलक समाज व्यवस्था भी कह सकते हैं। अतः जैन समाज समता मूलक समाज है।
जैन आगम चार अनुयोगों में विभक्त है। इन्हें जैनों के चार वेद भी कहते हैं, वे हैं-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग । 'प्रथमानुयोग' महापुरुषों के जीवन चरित्र द्वारा तत्त्व बोध कराता है। 'करणानुयोग' में लोक और अलोक का विभाग तथा कालचक्र के परिवर्तन का वर्णन है । 'चरणानुयोग' में मुनियों और गृहस्थों की चर्या का वर्णन है। 'द्रव्यानुयोग' में जीवाजीवादिक द्रव्यों का विवेचन है। अधिकांश जैन साहित्य प्राकृत/अर्धमागधी भाषा में है। संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल, मराठी, हिंदी आदि अन्य भाषाओं में भी जैन साहित्य प्रचुर मात्रा में मिलता है। जैनाचार्यों ने प्रायः सभी भाषाओं को अपनाकर साहित्य जगत् की श्रीवृद्धि की है। प्रायः उन्होंने जन प्रचलित भाषा में ही अपने भावों को अभिव्यक्ति दी है।
जैन धर्म के मूल तत्त्व जैनाचार की मूलभित्ति अहिंसा है। अहिंसा का जितना-सूक्ष्म विवेचन जैन परंपरा में मिलता है, उतना अन्य किसी परंपरा में देखने को नहीं मिलता। प्रत्येक आत्मा चाहे वह किसी भी योनि में क्यों न हो तात्विक दृष्टि से समान है। चेतना के धरातल पर समस्त प्राणी समूह एक हैं। उसमें कोई भेद नहीं है। जैन दृष्टि का यह साम्यवाद भारत के लिए गौरव की चीज है। इसी साम्यवाद के आधार पर जैन परंपरा यह घोषणा करती है कि सभी जीव जीना चाहते हैं,कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम मन से भी किसी के वध की बात न सोचें। शरीर से हत्या कर देना तो पाप है ही, किंतु मन में तद्विषयक भाव होना भी पाप है। मन,वचन,काय से किसी भी प्राणी को संताप नहीं देना,उनका वध नहीं करना.उसे कष्ट नहीं देना यही सच्ची अहिंसा है। वनस्पति जगत से लेकर मानव तक की अहिंसा की यह कहानी जैनाचार की विशिष्ट देन है। विचारों में एकात्मवाद का आदर्श
1. आदिपुराण 30/46 (बाह्मणः वत संस्कारात)