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पृष्ठभूमि / 17
जैन दर्शन नास्तिक नहीं समस्त भारतीय दर्शनों को यदि वैदिक और अवैदिक इन दो विभागों में बांटा जाए तो जैन
और बौद्ध दर्शन अवैदिक दर्शन की कोटि में आते हैं। क्योंकि न तो वे वेदों को प्रमाण मानते हैं न ही उसे ईश्वर प्रणीत या अपौरुषेय मानते हैं। इसी मान्यता के कारण कुछ लोग समस्त भारतीय दर्शनों को आस्तिक और नास्तिक दर्शनों में विभक्त कर जैन और बौद्ध दर्शन को चार्वाकों की तरह नास्तिक दर्शन कहते हैं; जो कि मात्र कल्पना आधारित है; क्योंकि ऐसे तो कोई भी किसी को आस्तिक और किसी को नास्तिक ठहरा सकता है । वस्तुतः आस्तिक और नास्तिक होना वेदों को मानने या न मानने पर निर्भर नहीं है, अपितु परलोक को मानने और न मानने के आधार पर ही आस्तिक और नास्तिक दर्शनों का वर्गीकरण होता है। इस दृष्टि से जैन और बौद्ध दोनों दर्शन सर्वथा आस्तिक दर्शन हैं, क्योंकि दोनों मोक्ष और परलोक में आस्था रखते हैं।
वेद आधारित आस्तिकता और नास्तिकता की उक्त मान्यता को एक परंपरागत प्रम निरूपित करते हुए प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने प्रो. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य कृत
जैन दर्शन पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है-"भारतीय दर्शन के विषय में एक परंपरागत मिथ्या भ्रम का उल्लेख करना भी हमें आवश्यक प्रतीत होता है। कुछ काल से लोग ऐसा समझने लगे हैं कि भारतीय दर्शन की आस्तिक और नास्तिक नाम से दो शाखाएं हैं। तथाकथित वैदिक दर्शनों को आस्तिक दर्शन और जैन तथा बौद्ध जैसे दर्शनों को 'नास्तिक दर्शन' कहा जाता है।
वस्तुतः यह वर्गीकरण निराधार ही नहीं नितांत मिथ्या भी है। आस्तिक और नास्तिक
अस्ति नास्ति दिष्टं मति' (पा.44301 इस पाणिनि सत्र के अनसार बने हैं। मौलिक अर्थ उनका यही था कि परलोक (जिसको हम दूसरे शब्दों में इंद्रियातीत तथ्य भी कह सकते हैं) की सत्ता को माननेवाला आस्तिक और न माननेवाला नास्तिक कहलाता है। स्पष्टतः इस अर्थ में जैन और बौद्ध दर्शनों को नास्तिक नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत हम तो यह समझते हैं कि शब्द प्रमाण की निरपेक्षता से वस्तु तत्त्व पर विचार करने के कारण दूसरे दर्शनों की अपेक्षा उनका अपना एक आदरणीय वैशिष्टय ही है।
सांस्कृतिक दृष्टि से जैन धर्म ने विश्व को एक समन्वित जीवन शैली दी है। कमल पत्र पर पड़े जल बिंदु की तरह त्याग और भोग की संतुलित जीवन जीने की कला जैन धर्म की प्रमुख देन है। जिस सह-अस्तित्व की चर्चा आज जोर-शोर से की जाती है, वह हजारों-हजार वर्ष पहले से ही जैन धर्म के अहिंसा मूलक सिद्धांत से जुड़ा हुआ है। '
जिओ और जीने दो' का जीवन दर्शन जैन धर्म का प्रमुख उद्घोष है। जैनाचार अहिंसा की ही मूलभित्ति पर खड़ा है। जैनत्व की आधारशिला ही अहिंसा है। अतः हम जैन संस्कृति को अहिंसा मूलक संस्कृति भी कह सकते हैं।
जैन समाज की संरचना जातीय आधार पर न होकर कर्मों/गुणों के आधार पर की गयी है। जैन दर्शन के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने जन्म मात्र से महान् नहीं बनता
___ 1. जैन दर्शन, पृ. 15