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________________ जैनाचार / 215 1. संकल्पी हिंसा : संकल्पपूर्वक किसी जीव का घात करना अथवा उसे कष्ट पहुंचाना संकल्पी हिंसा है । कसाइयों द्वारा प्रतिदिन असंख्य पशुओं को मौत के घाट उतारा जाना इसी संकल्पी हिंसा का परिणाम है। आतंकवाद.जातीय संघर्ष.साम्प्रादायिक दंगों एवं अपने मनोरंजन अथवा मांसाहार के लिये शिकार आदि करना इसी संकल्पी हिंसा की पर्याय है। इसके अतिरिक्त धर्म के नाम पर की जाने वाली पशुओं की बलि भी इसी संकल्पी हिंसा की कोटि में आती है। 2. आरंभी हिंसा : घरेलू काम-काजों में दैनिक कार्यों के निमित्त से जो हिंसा होती है वह आरंभी हिंसा कहलाती है। इसके अंतर्गत भोजन बनाना, झाड़ना, बुहारना, नहाना, धोना आदि क्रियाएं आती हैं। 3. औद्योगिक हिंसा : गृहस्थ को अपने जीवन के निर्वाह के लिये अर्थोपार्जन अनिवार्य है। उसके लिए खेती-बाड़ी, नौकरी, व्यवसाय अथवा बड़े-बड़े उद्योग धंधों द्वारा होने वाली हिंसा, औद्योगिक हिंसा कहलाती है। 4. विरोधी हिंसा : अपने तथा अपने कुटुम्बियों के जान-माल की रक्षा के लिये अथवा धर्म, धर्मातयन, तीर्थ, मंदिर एवं संतों पर आने वाली बाधाओ के निराकरण के लिये तथा अपने राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा करने के लिए आतताइयों अथवा आक्रमणकारियों से मुकाबला करते हुए जो हिसा करनी पड़ती है, वह विरोधी हिसा है। साधक गृहस्थ को चारों प्रकार की हिसा का त्याग कर पाना संभव नहीं है। उसको अपने दैनिक जीवन की आवश्यक्ताओ की पूर्ति हेतु आरभी व उद्योगी हिसा करनी ही पड़ती है। अत: उक्त दोनों प्रकार की हिसा उमके लिए अपरिहार्य है। इतना होने पर भी वह यद्वा-तद्वा कोई भी कार्य नहीं करता है। वह अपनी प्रत्येक क्रियाओं में पूर्ण सावधानी रखता हुआ यत्नाचारी प्रवृत्ति करता है। अपन व्यवसाय में भी वह इसका ध्यान रखता है। उस प्रकार के व्यवसाय को वह भूलकर के भी नही अपनाता जिसमें जीवों की अधिक हिंसा होती हो. साथ ही बहुजीव वधकारी उद्योग भी वह नही खोलता इसी तरह विरोधी हिसा से भी वह नहीं बच पाना है । यद्यपि वह स्वय किसी से भी अकारण वैर/विरोध नहीं लेता,कित् यदि कोई उम पर आक्रमण करे तो वह उमसे बचने के लिये डटकर मुकाबला करता है। आक्रमणकारी, आततायी, अत्याचारी का सामना कर उसे सबक सिखाना ही गृहस्थ का विरोधी हिमा का अभिप्रेत अर्थ है। वह उसके लिए क्षम्य है। उसके बिना समाज में अराजकता बढ जाएगी। यदि कोई देश पर आक्रमण कर हमारे अस्तित्व को चुनौती देता है तो इस भावना म कि इमम व्यर्थ में खून बहेगा, डरकर मुंह छुपाना अहिंसा नहीं कायरता है। अहिमा कायरता नही, वह तो वीरों का भूषण है, क्षत्रियों का धर्म है। जैन धर्म के सभी तीर्थकर क्षत्रिय वशी थे। उन्होंने राष्ट्र की रक्षा एवं स्वेच्छाचारी राजाओं के कुशासन को कुचलने के लिए अपने जीवन में अनेक बार दिग्विजय यात्राएं करके समस्त राष्ट्र को एक सूत्र में बांधा था। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त, मेघवाहन,सम्राट खारवेल एवं वीर सेनापति चामुण्डराय जैसे अनेक जैन वीर योद्धा हुए, जिन्होंने अपने रण कौशल से
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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