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212 / जैन धर्म और दर्शन
या त्रस, तात्त्विक दृष्टि से सभी समान हैं। सभी जीवों में एक सी ही आत्मा का वास है। सुख-दुःख का अनुभव प्रत्येक प्राणी को होता है। जीवन-मरण की प्रतीति सब करते हैं। जिस प्रकार हमें जीवन प्रिय है मरण अप्रिय,सुख प्रिय है दुःख अप्रिय, अनुकूलता प्रिय है प्रतिकूलता अप्रिय, लाभ प्रिय है हानि अप्रिय,स्वतंत्रता प्रिय है परतंत्रता अप्रिय, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीवनादि प्रिय है, तथा मरण आदि अप्रिय, इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि हम मन से भी किसी प्राणी के वध आदि की बात न सोचें । शरीर से किसी को कष्ट पहुंचाना तो पाप है ही,मन और वचन से भी इस प्रकार की प्रवृत्ति करना पाप है । मन, वचन
और काय से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुंचना ही सच्ची अहिंसा है। वनस्पति आदि एकेन्द्रिय प्राणी से लेकर मानव तक के प्रति अहिंसक आचरण की भावना जैन परम्परा की प्रमुख विशेषता है। इसे अहिंसक आचार का परमोत्कर्ष भी कह सकते हैं। आचार का यह अहिंसक विकास जैन संस्कृति की अमूल्य निधि है।
अहिंसा अव्यवहार्य नहीं जैन धर्म में प्रतिपादित इस अहिंसा को न समझ पाने के कारण कुछ लोग इसे कायरता की जननी समझते हैं तथा कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सिद्धान्तत: इसे श्रेष्ठ समझते हुए भी उसे अव्यवहार्य मानते है। उनका यह मानना है कि अहिंसा अच्छी चीज होते हुए भी उसे पाला नहीं जा सकता. इसलिए वह अव्यवहार्य है।
यह उनकी नासमझी का ही परिणाम है। न तो अहिंसा कायरता है और न ही वह ऐसी है कि उसको पाला ही न जा सके, जिससे कि हम उसे अव्यवहार्य कह सकें। हिंसा
और अहिंसा के स्वरूप पर गहराई से विचार करने पर उक्त आशंका को स्थान ही नहीं मिलता।
किसी जीव को मारना मात्र हिंसा नहीं है। हिंसा और अहिंसा का संबंध तो हमारे भावों से है। इसे हमें व्यापक अर्थों में समझना चाहिए। यूं तो संसार में सर्वत्र जीव भरे हैं, तथा वे प्रति समय अपने-अपने निमित्तों से मरते रहते हैं। इतने मात्र से कोई हिंसक नहीं हो सकता। जैन धर्म के अनुसार हिंसा रूप परिणाम होने पर ही किसी को हिंसक कहा जा सकता है। हिंसा की परिभाषा बताते हुए आचार्य उमा स्वामी ने कहा है कि :
“प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा” -त. सू.7 ___अर्थात् जब कोई प्रमादी बनकर,जानबूझकर, असावधानी अथवा लापरवाही से किसी भी जीव का घात करता है अथवा कष्ट पहुंचाता है तभी उसे हिंसक कहा जा सकता है। आशय यह है कि हिंसा तीन परिस्थितियों में होती है। पहली जानबूझकर-अभिप्रायपूर्वक, दूसरी असावधानी या लापरवाही जन्य तथा तीसरी हिंसा न चाहते हुए भी, पूर्ण सावधानी बरतने पर भी, अचानक/अनायास किसी जीव का वध हो जाने पर । जब कोई स्वार्थ-प्रेरित व्यक्ति कषायाविष्ठ हो किसी पर बार करता है तो यह हिंसा कषाय प्रेरित हिंसा कहलाती है। तथा जब हमारी असावधानी या लापरवाही से किसी का घात होता है अथवा किसी को कष्ट पहुंचता है तो वह हिंसा असावधानीकृत हिंसा कही जाती है। लेकिन पर को कष्ट