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________________ 180 / जैन धर्म और दर्शन कि सम्यक् दर्शन,सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की व्यष्टि मोक्ष का साधन नहीं है। रोगी का रोग दवा में विश्वास करने मात्र से दूर न होगा। जब तक उसे दवा का ज्ञान न हो और वह चिकित्सक के अनुसार आचरण न करे, रोग जाने का नहीं। इसी तरह दवा की जानकारी-भर से ही रोग दूर नहीं होता, जब तक कि रोगी उस पर विश्वास न करे और उसका विधिवत् सेवन न करे। इसी प्रकार दवा में रुचि और उसके ज्ञान के बिना उसके सेवन मात्र से भी रोग दूर नहीं हो सकता। रोग तभी दूर हो सकता है जब दवा में श्रद्धा हो, जानकारी हो और चिकित्सक के कहे अनुसार उसका सेवन किया जाए। इसी प्रकार सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र को समष्टि से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है।' इसकी तुलना हम लकड़ी के जीने से कर सकते हैं। जिस प्रकार लकड़ी के जीने में उसके दोनों ओर दो पाये लगे रहते है तथा बीच में एक आड़ी लकड़ी लगी होती है,जो दोनों पायों को जोड़े रहती है। दोनों ओर के पाये सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान के प्रतीक है तथा बीच की आडी लकड़ी सम्यक चारित्र की प्रतीक है। जिसके सहारे हम आध्यात्मिक ऊंचाइयों का स्पर्श कर पाते हैं। बीच की लकड़ी के अभाव में दोनों ओर के पाये कुछ काम नहीं कर पाते तथा दोनों पायों के अभाव में बीच की लकड़ी भी निरर्थक सिद्ध होती है। तीनों के योग से ही सीढ़ी तैयार हो सकती है। इसी प्रकार सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र के योग से ही हमारा मोक्ष मार्ग बनता है। श्रद्धा ज्ञान और आचरण क्रमशः हमारे मस्तिष्क, आंख और चरण के प्रतीक हैं। व्यक्ति को चलने के लिए इनका सम्यक् उपयोग करना पड़ता है। पैरों से हम चलते हैं, आंखों से देखते हैं तथा मस्तिष्क से यह निर्णय लेते हैं कि हमें कहां पहुंचना है। तभी हम सही चल पाते हैं। यदि हम आंखें बंद कर चलते रहें तो गर्त में गिरेंगे। आंखें खुली हों किंतु पैर काम नहीं दे रहे हों तो हम अपने घर नहीं पहुंच सकते। पैर भी सही हो, आंखें भी खली हों पर हमें यही पता न हो कि हमें पहंचना कहां हैं,तो निरंतर गतिशील रहने के बाद भी हम कहीं नहीं पहुंच सकते? इसी प्रकार श्रद्धा, ज्ञान और आचरण तीनों के संयोग से ही हम मोक्ष मार्ग पर चल सकते हैं। मोक्षमार्ग के भेद निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार का है। व्यवहार प्रवृत्ति मूलक है तथा निश्चय निवृत्ति परक । शुद्ध आत्मस्वरूप की श्रद्धा शुद्धात्मा का ज्ञान और शुद्ध आत्मस्वरूप में लीनता रूपचारित्र को अभिन्न परिणति होने पर निश्चय मोक्षमार्ग बनता है । यह परम वीतराग अवस्था में होता है। इससे पूर्व की भूमिका में (सराग दशा में) तत्त्वों के श्रद्धान और ज्ञानपूर्वक होने वाले आचरण को व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं। निश्चय साध्य है और व्यवहार को उसका साधन कहा गया है। जैसे फूल के अभाव में फल नहीं मिलता वैसे ही व्यवहार के अभाव में निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती। फूल ही विकसित होकर फलों में रूपांतरित होते हैं। 1. सर्वार्थ सिटि2 2. निश्चय व्यवहारभ्यां मोक्षमार्गः द्विधास्थितः । तत्राध्यः साध्वरूपःस्वाव्दीतीयत् तस्य साधनम्॥ -त. सार 912, तत्वानुशासन 28
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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