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170 / जैन धर्म और दर्शन
मोक्ष का अर्थ अभाव नहीं बौद्ध दार्शनिक 'मोक्ष' का अर्थ 'आत्मा का अभाव' मानते हैं। उनका मानना है कि जैसे दीपक के बुझने से दीपक का अभाव हो जाता है, वैसे ही कर्मों का क्षय हो जाने से, निर्वाण में चित्त-संतति का विनाश हो जाता है। अतः मोक्ष में आत्मा का अस्तित्व नहीं होता है।
जैन दर्शन की यह मान्यता है कि सत् का कभी विनाश नहीं होता, तथा असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती है। बौद्धों के उपर्युक्त मत की मीमांसा करते हुए आचार्य 'समंत भद्र' महाराज ने कहा है कि दीपक के बुझ जाने से दीपक का अभाव नहीं होता, अपितु उसके प्रकाश रूप परमाणु ही अंधकार रूप परिणत हो जाते हैं। उसी प्रकार मोक्ष का अर्थ भी आत्मा का विनाश नही होता, कर्मों का क्षय होते ही जीवात्मा अपनी स्वाभाविक अवस्था में परिणत हो जाती है।
वस्तुतः जीव अपने रागद्वेषादिक वैभाविक-भाव के कारण ही संसारी होकर दुःखी होता है। आत्मा का राग-द्वेषादिक भावों से मुक्त होना ही मुक्ति है। आचार्य 'कमलशील' ने संसार और मोक्ष के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “रागादि-क्लेश और वासनामय-चित्त को ससार कहते हैं । चित्त का रागादि क्लेश और वासनामय संसार से मुक्त हो जाना ही मुक्ति है। अत मुक्ति का अर्थ जीव का अभाव न होकर रागादि क्लेशों से मुक्ति है। रोग की निवृत्ति होने का अर्थ आरोग्य का लाभ है; न कि रोगी की निवृत्ति । अतः मुक्ति का अर्थ जीव का अभाव किसी भी अर्थ में नहीं हो सकता। जैन दर्शन में आत्मा की स्वाभाविक अवस्था की उपलब्धि को ही मुक्ति कहा गया है। वस्तुतः समस्त कर्मों के क्षय से होने वाला आत्म-लाभ ही मुक्ति है। कहा भी है
आत्मलाभं विदुमोक्षंजीवस्यान्तर्मलक्षयात् नाभावं नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम्।
मुक्ति के बाद ऊर्ध्वगमन में हेतु कर्म मुक्त होते ही जीव का शरीर कपूर की तरह जलकर उड़ जाता है तथा जीवात्मा अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति के कारण लोक के शिखर पर विराजमान हो जाता है । कर्मों का क्षय
और जीव का लोकांत-गमन दोनों साथ-साथ होते हैं। जीव के ऊर्ध्वगति में आचार्य 'उमा स्वामी' ने चार हेतु दिये हैं--पूर्वप्रयोगादसंगत्वाबंधच्छेदात्तथागतिपरिणामच्च । आविद्धकुलालचक्रवव्यपगत्लेपालाम्बुवदेरण्ड बीजवत् अग्नि शिखावच्च ।'
1 भारतीय दर्शन प्रो हरेन्द्र प्रसाद, पृ 127 2 भावस्स णत्वि णासो पत्थि अभावस्स चेव उपपादो।-पका-15 3 वासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तम पुद्गल भावतोड़स्ति ।-स्वय भूस्त्रोत-24 4 चित्तमेवहि ससारो रागादिक्लेश वासितम्।
तदेव ते विनिर्मुक्त भवान्त इतिकथ्यते ॥ त स पजिका पृ 104 5 सिटि विनिश्चय पृ 485 6 त.सू. 10/6-7