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कर्म मुक्ति के उपाय : (संवर- निर्जरा) / 165
जैन तपश्चर्या शरीर और मन दोनों की शुद्धि द्वारा आत्मा का निर्मल स्वभाव प्रकट करने वाली है। उसे मात्र शारीरिक दंड नहीं कहा जा सकता ।
इस प्रकार संवर और निर्जरा के साधनों को अपनाता हुआ साधक अपना क्रमोन्नत विकास करते हुए मुक्ति के सोपानों पर चढता है। संवर और निर्जरा ही मोक्षमार्ग में परम उपादेय हैं ।
जैनधर्म और मूर्ति पूजा
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जैनधर्म में मूर्ति पूजा की अवधारणा पौराणिक काल से ही चली आ रही है सिंधु घाटी से प्राप्त मृण मुद्राओं में उत्कीर्ण कायोत्सर्ग मुद्राएं भी उसकी साक्षी है। साहित्यिक अभिलेखों के अनुसार भगवान महावीर की चंदन काष्ट निर्मित जीवन्तस्वामी की प्रतिमा का प्रचलन तीर्थंकर महावीर के युग में ही हो गया था। सम्राट खारवेल द्वारा उत्कीर्णीत उदयगिरि का हाथी गुफा वाला शिलालेख जैन समाज में प्रचलित मूर्ति पूजा का आकाट्य उदाहरण है। उक्त अभिलेख में सम्राट खारवेल द्वारा मगधराज 'पुष्यमित्र' को पराजित कर 'कलिंगजिन' के नाम से ख्याति उस जैन मूर्ति के लौटाकर लाने का उल्लेख है जिसे मगधधिपति नंद ने (ई. पू. 424) में ले गया था। इस अभिलेख से जैन मूर्ति पूजा की प्राचीनता सिद्ध होती है ।
इसके अतिरिक्त पटना के पास 'लोहानीपुर से प्राप्त शिरोविहीन मौर्यकालीन प्रतिमा भी जैन परंपरा में मूर्ति पूजा की प्राचीनता का उदाहरण है । इस मूर्ति का विश्लेषण करते हुए महान पुरातत्वविद् श्री ' अमलानंद घोष' ने लिखा है
" लोहानीपुर से प्राप्त मौर्ययुगीन तीर्थंकर प्रतिमाएं यह सूचित करती है कि इस बात की सर्वाधिक सभावना है कि जैन धर्म में पूजा हेतु प्रतिमाओं के निर्माण में बौद्ध और ब्राह्मण धर्म से आगे था। बौद्ध और ब्राह्मण धर्म से संबंधित इतनी प्राचीन प्रतिमाएं अभी तक प्राप्त नहीं हुई हैं। जिनकी शैली पर 'लोहानीपुर' की मूर्तियां उत्कीर्ण की गई हैं। " 1
1. जैन कला एव स्थापत्य खड-1, पृ 4