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निर्जरा
निर्जरा का अर्थ बद्ध कर्मों का आत्मा से अलग होना निर्जरा है ।' सात तत्त्वों में संवर तत्त्व के बाद इसका स्थान है। संवर के द्वारा कर्मों का आस्रव रुकता है; तो निर्जरा द्वारा पूर्व-बद्ध अर्थात् संचित कर्मों का क्षय होता है। जैसे जल के प्रवेश-द्वार को बंद कर देने पर सूर्य के प्रखर ताप से तालाब स्थित जल धीरे-धीरे सूख जाता है, वैसे ही कर्मों के आस्रव को संवर द्वारा रोक देने पर तप आदि साधनों से आत्मा के साथ पहले बांधे हुए कर्म धीरे-धीरे विलीन होते जाते हैं। इस दृष्टि से 'निर्जरा' का अर्थ हुआ, कर्म वर्गणाओं का आंशिक रूप से आत्मा से छूटना। आत्म-प्रदेशों से कर्मो का छूटना ही निर्जरा है। यह प्रक्रिया जब उत्कृष्टता को प्राप्त हो जाती है, तब आत्मा में लगे सम्पूर्ण कर्मों का विलगाव हो जाता है और आत्मा अपनी स्वभाविक अवस्था को प्राप्त कर लेता है । कर्मों का पूर्णतया विलग होना मोक्ष है।
निर्जरा शुद्धता की प्राप्ति के मार्ग में सीढ़ियों के समान है। जैसे कदम-दर-कदम सीढ़ियों पर चढ़कर मंजिल पर पहुंचते हैं,वैसे ही क्रमशः निर्जरा कर मोक्ष-अवस्था प्राप्त की जाती है।
निर्जरा के भेद निर्जरा दो प्रकार की होती है-द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा। आत्मा के जिस निजी (शुद्ध) परिणमन से कर्म-पुद्गल विलग होते हैं, उस परिणाम/भाव की प्रक्रिया को भाव निर्जरा कहते हैं। दूसरे शब्दों में भाव निर्जरा से तात्पर्य आत्मा के निज में होने वाले उन वैचारिक परिवर्तनों से है जिनसे कर्म-पुद्गल आत्म-प्रदेशों को छोड़ने के लिए बाध्य होते हैं। द्रव्य निर्जरा से तात्पर्य है कर्म-पुदगलों का आत्म-प्रदेशों से विलग होने की प्रक्रिया; जो कर्म-फल भोगने के द्वारा अथवा कर्म-फल भोगने से पूर्व तप आदि के द्वारा संपादित होती है।
इस प्रकार से द्रव्य निर्जरा दो प्रकार की हो जाती है। प्रथम सविपाक निर्जरा और द्वितीय अविपाक निर्जरा ।
स्थिति के पूर्ण होने पर, कर्मों के सुख-दुःखात्मक फल देकर विलग होने को सविपाक
1. वा. अनु 66 2. स सि 14 3 प्रसा टीका 36 4 आ. म. 1847