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156 / जैन धर्म और दर्शन
हिसा का पूर्णतया परिहार हो जाता है; अतः इसकी परिहार-विशुद्धि, यह सार्थक संज्ञा है। इस चारित्र का धनी साधु जल में पड़े कमल के पत्रों की तरह पापों से अलिप्त रहता है। यह किसी विशिष्ट साधना-सम्पन्न तपस्वी को ही प्राप्त होता है।
4. सक्ष्म-साम्पराय : जिस साधक की समस्त कषायें नष्ट हो चकी हैं. मात्र लोभ कषाय अति सूक्ष्म रूप में शेष रह गयी हैं तथा जो उसे भी क्षीण करने में तत्पर है, उसके चारित्र को 'सूक्ष्म-साम्पराय चारित्र' कहते हैं।'
5. यथारख्यात् : समस्त मोहनीय कर्म के उपशांत अथवा क्षीण हो जाने पर, प्रकट आत्मा के शांत-स्वरूप में रमण करने रूप चारित्र 'यथाख्यात' चारित्र हैं। इसको वीतराग चारित्र या अथाख्यात चारित्र भी कहते हैं। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि सामायिक के अतिरिक्त शेष चारों चारित्र सामायिक रूप मे ही हैं परन्तु आचार गुणों की विशेषता होने के कारण उन चार को अलग किया है।
इस प्रकार व्रत,समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह-जय और चारित्र रूप संवर के 62 भेद कहे गए हैं। वे साधु-जीवन को लक्ष्य करके कहे गये हैं। इसका अर्थ यह है कि संवर की सिद्धि के लिए साधु धर्म अपेक्षित है। गृहस्थजन भी इनका यथाशक्ति पालन करके आंशिक संवर के अधिकारी बन सकते हैं।
जैन धर्म का हिन्दू धर्म पर प्रभाव जैन धर्म का हिन्दू धर्म पर क्या प्रभाव पड़ा? इसका उत्तर यदि हम एक शब्द मे देना चाहें तो वह शब्द है-“अहिंसा" और यह अहिंसा शारीरिक ही नहीं बौद्धिक भी रही हो। शैव और वैष्णव धर्मों का उत्थान जैन और बौद्ध धर्मों के बाद हुआ । शायद यही कारण है कि इन दोनों मतों (विशेषत: वैष्णव मत) में अहिंसा का ऊंचा स्थान है। दुर्गा के सामने कुस्माण्ड की बलि चढ़ाने की प्रथा भी जैन और बौद्ध मतों के अहिंसावाद से ही निकली होगी।
रामधारी सिंह दिनकर "संकृति के चार अध्याय” पृ119
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