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________________ कर्म मुक्ति के उपाय :-(संवर-निर्जरा) / 153 तभी मेरी आत्मा आलोकित होगी। इस प्रकार का विचार करना 'निर्जरा' अनुप्रेक्षा है। 10. लोक अनुप्रेक्षा : अपने आत्म-स्वरूप को भूलकर, मैं अनादि से इस लोक में भटक रहा हूं। यह लोक छह द्रव्यों का संयुक्त रूप है। किसी के द्वारा बनाया नहीं गया है; न ही इसका विनाश संभव है, यह अनादि निधन है। चौदह राजू ऊचाई वाले पुरुषाकार इस लोक में, मैं अपने अज्ञान के कारण भटकता हुआ अकथनीय दुःखों का पात्र रहा हूं। अब जैसे भी बने, मुझे इस परिभ्रमण को समाप्त कर अपने शाश्वत स्वरूप को प्राप्त करना है, जहां जाने के बाद किसी प्रकार का आवागमन नहीं होगा। इस प्रकार के चितन को 'लोकानुप्रेक्षा' कहते हैं। 11. बोधि-दुर्लभ अनुप्रेक्षा : धन-धान्यादि बाह्य सासारिक सम्पदा तो मैं अनेकों बार प्राप्त कर चुका, पर उनसे मुझे किसी प्रकार का सुख या सतोष नहीं मिला। कितु संसार से पार उतारने वाला यह ज्ञान, मुझे बहुत दुर्लभता से प्राप्त हुआ है। इसकी प्राप्ति उतनी ही दुलेभ है, जितनी कि किसी शहर के चौराहे पर रत्नों की राशि का पाना। अत: रत्नों बहमुल्य इस बोधि रत्न को पाकर मुझे इसके संरक्षण और संवर्धन में लगना चाहिए। इस प्रकार के चिंतन को 'बोधि-दुर्लभ' अनुप्रेक्षा कहते है। 12. धर्म-भावना अनुप्रेक्षा : लोक के सारे संयोग और सबध यहीं छूट जाते हैं, धर्म इस जीव के साथ परलोक में भी जाता है। धर्म ही इसका सच्चा साथी है। यही हमारा वास्तविक मित्र है। इससे ही हमारा कल्याण होगा। इस प्रकार के चितन से अपनी धार्मिक आस्था दृढ़ करना 'धर्मानुप्रेक्षा' है। इन बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का हमारे जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। इन पर अनेक ग्रन्थ प्राकृत और संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं, तथा अनेक हिदी के कवियों ने भी अपनी लेखनी का विषय बनाया है। उनका आलंबन लेकर, हम महज ही इनका सविस्तार चिंतन कर सकते हैं। परिषह जय अंगीकृत धर्म-मार्ग में स्थिर रहने के लिए तथा कर्म बध के विनाश के लिए जो भी प्रतिकूल परिस्थितियां समतापूर्वक सहन करने योग्य हों, उन्हें परिषह जय कहते हैं। कहा भी मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्याः परिषहा ।' 'परिषह' यह शब्द 'परि' और 'षह' इन दो शब्दों के सम्मेल से बना है। 'परि' अर्थात् 'सब ओर से' 'षहः' का अर्थ होता है ‘सहना', यानि सब ओर आए हुए कष्टों तथा दुःखों को समतापूर्वक सहन करना ही परिषह जय है। दिगम्बर साधु इमका पालन करते हैं। चूंकि वे प्रकृति में रहते हैं तथा सभी प्रकार के साधन व सुविधाओं से दूर रहते हैं, ऐसी स्थिति में ता भाव को नष्ट करने वाली अनेक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है और वे ही स्थितियां उनके समत्व की परीक्षा के विशेष स्थल हैं। यद्यपि ऐसी परिस्थितियां अनगिनत 1. तत्वार्थ सूत्र-9/8
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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