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________________ 152 / जैन धर्म और दर्शन 3. ससार अनुप्रेक्षा जन्म, जरा और मृत्युरूपी इस ससार में सभी जीव चारों गतियों में भ्रमण करते हुए दुख पाते हैं। समार में रहने वाले सभी प्राणी दुखी हैं। चाहे वह बहुत वैभव सम्पन्न हो, उसके पास सारी सुविधाए हों अथवा वैभवहीन, दरिद्र हो, अभावग्रस्त हो, सभी के सभी दुखी हैं। फर्क इतना है कि धनवान अधिक पाने की चाह में दुखी हो रहा है तथा निर्धन अभाव के कारण दुखी हो रहा है। गरीब की कोशिश है—अपने अभाव को मिटाने की तथा सपन्न वर्ग की चाहत है—और अधिक पाने की। इस प्रकार सब आशा और तृष्णा के अधीन होकर तदनुरूप दुखी है। इस प्रकार का चितन करना 'ससारानुप्रेक्षा' है । 4. एकत्व अनुप्रेक्षा ससार में प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही जन्म लेता है। जन्म के समय उसके साथ कोई नही आता । सारे रिश्ते नाते, सगी-साथी सब बीच में ही मिलते हैं, तथा यह मरता भी अकेला है। इसके साथी न तो जन्म के समय इसके साथ आते है और न ही मरण के बाद कोई इसके साथ जाता है। अपना सुख-दुख उसे अकेला ही भोगना पडता है । उसे ससार की पूरी यात्रा अकेले ही पूर्ण करनी पडती है। इस प्रकार का विचार करना 'एकत्वानुप्रेक्षा' है । 5. अन्यत्व अनुप्रेक्षा बाहर से दिखने वाले धन-वैभव तथा परिवार - परिजन ये सब मुझसे पृथक् हैं, ये मेरे नही है। यहा तक कि यह देह, जिसका मेरे साथ बडा घनिष्ठ सबध है, यह भी मेरी नही है । यद्यपि दूध और पानी की तरह मिली-जुली होने के कारण यह एक-सी दिखती है, किंतु विवेक के द्वारा इनका भेद जाना जाता है। मैं अपने पुरुषार्थ के बल पर अपनी आत्मा को इस शरीर की कैद से मुक्त कर सकता हू। इस प्रकार का विचार करना 'अन्यत्व अनुप्रेक्षा' है । . 6. अशुचि अनुप्रेक्षा यह ऊपर से गोरा, काला या सुदर दिखाई पडने वाला शरीर भीतर से उतना ही घिनौना है। इसके अदर कोई सार नही है। इसे जितना साफ करने का प्रयास करते हैं, यह उतनी ही मैली होती जाती है। इतना ही नही, इसके सपर्क मे आने वाली केशर, चंदन, पुष्प जैसी बहुमूल्य सामग्री भी अपवित्र हो जाती है। इस देह का श्रृंगार करना तो विष्ठा के घड़े को फूलों से सजाने जैसा कृत्य है । इस शरीर के द्वारा तप करने में ही सार्थकता है । इसी से यह पवित्र होता है। इस प्रकार का विचार 'अशुचि अनुप्रेक्षा' है । 7. आस्रव अनुप्रेक्षा. मैं अपने मन, वचन और काय की क्रियाओं के कारण, निरतर, अनेक प्रकार के कर्मों का आस्रव कर रहा हू, जिससे सम्बद्ध हो, अनेक प्रकार के कर्म हमारी आत्मा को नाना योनियों में भटका रहे हैं। जब तक हमारा अज्ञान दूर नही हो जाता, तब तक हम इस आस्रव से नही बच सकते । इस प्रकार का चितन करना 'आस्रवानुप्रेक्षा' है । 8. सवर अनुप्रेक्षा प्रनि समय आस्त्रवित होने वाले कर्मों को रोके बिना हमारी आत्मा का विकास संभव नही। सवर के माध्यम से ही कर्मों को रोका जा सकता है। इसके साधन मेरे जीवन में कैसे अवतरित हो ? इस प्रकार का विचार करना 'सवर अनुप्रेक्षा' है । 9. निर्जरा अनुप्रेक्षा. कर्मों के झडने को निर्जरा कहते हैं । तप के द्वारा सभी कर्मों की निर्जरा होती है। जब तक अपने कर्मों की निर्जरा नही कर लेता, तब तक मैं अपने आत्मिक सुख को नही पा सकता। सवरपूर्वक जब तपरूपी अग्नि मेरे अंतर में प्रकट होगी,
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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