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10 / जैन धर्म और दर्शन
"मूल तत्व-द्रष्टाओं ने अपनी आत्मा के अंतर-मंथन से जो नवनीत प्राप्त किया है, धर्म उसी की अभिव्यक्ति है। उसी के निरूपण से विविध दर्शनों की उद्भूति हुई है । दर्शन का अर्थ होता है दृष्टि ।"
वस्तुतः इसी दृष्टि की प्रधानता जैन धर्म और दर्शन का मूलमंत्र है। यदि यह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह दृष्टि प्रदान करना ही इस पुस्तक का अभिप्रेत है।
जैन धर्म भावप्रधान धर्म है और जैन दर्शन भावना प्रधान है। जैन धर्म में साधना को प्रमुखता दी गई है। सहज साधना को चर्चा का परमोत्कृष्ट रूप मुनि दीक्षा है । सब प्रकार के परिग्रह से मुक्ति, राग-द्वेष से सर्वथा विरति, वीतराग मार्ग का अनुसरण और आत्मसाधना में निमग्नता, यह है मुनिचर्या । मुझे हर्ष है कि ऐसे ही एक मुनि की लेखनी से इस पुस्तक का सृजन हुआ है। उनकी अंतरंग भावना और धर्म के अनवरत अध्ययन का प्रतिफल है यह पुस्तक । सर्वथा निरपेक्ष भाव से रचित यह कृति तद्विषयक द्विषयक कृतियों में अपनी अलग पहचान रखती है। ___'जैन' का उद्भव 'जिन' से है जो अपने को, अर्थात् अपनी इंद्रियों को जीतता है वह 'जिन' है। जिन कोई ईश्वरीय अवतार नहीं है। जिसने काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोभ, मोह-माया आदि को संपूर्ण रूप में जीत लिया. वही सच्चा विजेता है. जिन है। जहां तक धर्म का संबंध है, उसका अर्थ है धारण करना । जिस प्रकार बिना नींव के किसी भवन की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार बिना धर्म के मानव जीवन की सार्थकता नहीं हो सकती।
जैन तत्त्व चिंतकों ने वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। वैसे तो जगत् में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जिसके स्वभाव में धर्म न हो, परंतु आचार-स्वरूप धर्म केवल जीवात्मा में पाया जाता है। इससे स्पष्ट है कि धर्म का संबंध आत्मा से है। जीव के विशुद्ध आचार को धर्म कहा गया है। वही आत्मा का स्वभाव है।
जहां तक जैन धर्म का संबंध है उसका अपना लंबा इतिहास है. उसकी अपनी परंपराएं हैं। उसका उद्भव कब हुआ और अपने विकास में उसे किन-किन अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ा। उसका सांगोपांग विवेचन लेखक ने इस पुस्तक में किया है। इतिहास पूर्व-दर्शक और मार्ग-प्रदर्शक होता है। विभिन्न दृष्टियों से जब उसका प्रतिपादन किया जाता है तो समन्वय के अभाव में न्याय-अन्याय के दृष्टिकोण बन जाना स्वाभाविक है। कहने की आवश्यकता नहीं कि साधक समन्वय का मार्ग अपनाता है। अपनी साधना-प्रधान दृष्टि से लेखक ने स्वतंत्र चिंतन से साक्ष्य के साथ इस पुस्तक में बड़ी गंभीरता से इसका विवेचन किया है।
जैन धर्म के इतिहास के विषय में अनेक भ्रांतियां हैं। भगवान महावीर को जैन धर्म का प्रवर्तक मानकर कहा गया है कि वह और बौद्धधर्म समकालीन हैं। यह एक बड़ी भूल है । ऐतिहासिक अभिलेखों और पुरातात्विक अवशेषों से पता चलता है कि जैन धर्म बहुत प्राचीन है। उसका प्रवर्तन तीर्थंकर भगवान आदिनाथ या ऋषभदेव ने किया था। इसकी विस्तृत चर्चा लेखक ने इस पुस्तक में की है।