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________________ 132 / जैन धर्म और दर्शन 38. आदेय : इस कर्म के उदय से जीव बहुमान्य एवं आदरणीय होता है।' प्रभायुक्त शरीर भी आदेय' नाम-कर्म की देन है। 39.अनादेय : 'अनादेय' कर्म के उदय से अच्छा कार्य करने पर भी गौरव प्राप्त नहीं होता। यह निमम शरीर का कारण भी है।' 40. यशकीर्ति : जिस कर्म के उदय से लोक में यश, कीर्ति,ख्याति और प्रतिष्ठा मिलती है वह 'यशकीर्ति नाम-कर्म' है। 41. अयशकीर्ति : इस कर्म के उदय से अपयश और अप्रतिष्ठा मिलती है। 42. तीर्थकर : 'तीर्थकर'नाम-कर्म त्रिलोक पूज्य एवं धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक बनाता है। इस प्रकार नाम कर्म के मूल बयालीस भेद तथा उत्तर भेदों को मिलने पर कुल 93 (तेरानवें) भेद हो जाते हैं। इनमें कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं।' नाम-कर्म के बंध का कारण मन-वचन-काय की कुटिलता अर्थात् सोचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ, इसी प्रकार अन्यों से कुटिल प्रवृत्ति कराना, मिथ्या दर्शन, चुगलखोरी, चित्त की अस्थिरता, परवंचन की प्रवृत्ति,झूठे माप-तौल आदि रखने से अशुभ नाम-कर्म का बंध होता है। इसके विपरीत मन-वचन-काय की सरलता, चुगलखोरी का त्याग,सम्यक् दर्शन, चित्त की स्थिरता, आदि शुभ नाम-कर्म के बंध का कारण होता है। तीर्थकर प्रकृति नाम-कर्म की शुभतम प्रकृति है, इसका बंध भी शुभतम परिणामों से होता है। तीर्थकर प्रकृति के बंध के सोलह कारण बताए गए हैं। सम्यक दर्शन की विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता, शील और व्रतों का निर्दोष परिपालन, निरंतर ज्ञान साधना, मोक्ष की ओर प्रवृत्ति (संसार से सतत् भीति), शक्ति अनुसार तप और त्याग, भले प्रकार की समाधि, साधुजनों की सेवा/सत्कार,पूज्य आचार्य,बहुश्रुत व शास्त्र के प्रति भक्ति, आवश्यक धर्म कार्यों का निरंतर पालन, धार्मिक प्रोत्साहन व धर्मीजनों के प्रति वात्सल्य यह सब तीर्थकर प्रकति के बंध का कारण है। गोत्र-कर्म लोक-व्यवहार संबंधी आचरण को गोत्र माना गया है। जिस कुल में लोक मूर्ति आचरण को परम्परा है, उसे उच्च 'गोत्र' कहते हैं तथा जिसमें लोकनिन्दित आचरण की परम्परा है, उसे 1 ध पू.665 2 सर्वा सि 8/11/306 3 वही 4 वही 5 वही 6धुपु 6/67 7. विशेष के लिये देखें तस.8/25-26 8. तसू6/22 9. वही6/23 10. तसू6/29
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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