________________
94 / जैन धर्म और दर्शन
यह पुरुष प्रयत्न के बिना स्वभाव से ही उत्पन्न होता है।
शब्द
भाषात्मक
अभाषात्मक
अक्षरात्मक अनक्षरात्मक
प्रायोगिक
नैसर्गिक संस्कृत आदि पशु-पक्षियों तत वितत घंन शौषिर मेघ गर्जनादि विविध भाषा की भाषा
तबला वीणा घंटा शंख
मृदंग सितार घड़ियाल बाँसुरी बंध-परस्पर एक क्षेत्रावगाह रूप सबध को बंध कहते हैं। छह द्रव्यों में पुद्गल ही परस्पर बंध को प्राप्त होते है, अन्य नहीं। यह बंध दीवार पर पुते चूने या रंग की तरह नहीं है अपितु बंध से तात्पर्य दूध और जल की तरह एक रस रूप हो जाने से है।
प्रायोगिक और वैससिक के भेद से बंध दो प्रकार का होता है। प्रायोगिक भी दो प्रकार का होता है अजीवकृत और जीवकृत । लाख, लकड़ी आदि का बध अजीव विषयक बंध है। वैनसिक बंध स्वाभाविक बंध है। इसमें पुरुष के प्रयत्न विशेष की आवश्यकता नहीं रहती। स्निग्ध और रूक्ष गुण के निमित्त से होने वाला इंद्र-धनुष, मेघ, उल्का आदि का बंध वैनसिक बंध के उदाहरण हैं।'
उल्का क्या है इस संबंध में वैज्ञानिकों ने एक बहुत बड़ा घटनात्मक इतिहास गढ़ डाला है। जैन दर्शन के अनुसार उल्का, ताराओं का टूटना नहीं है और न ही उनकी पारस्परिक टक्कर का परिणाम है। वह तो आकाश स्थित पुद्गल स्कंधों का संघर्ष-जन्य परिणाम है । इसी तरह विविध अणुओं के संयोगिक बादल,इंद्र-धनुष आदि परिणाम है ।
इसी प्रकार सूक्ष्मता, स्थूलता, विविध आकृतियां, इनकी टूट-फूट, अंधकार आदि सब पुद्गल की पर्याय हैं। अंधकार भी एक वस्तु है, क्योंकि वह दिखाई देती है। अन्य दर्शनकार इसे अभाव रूप मानते हैं किंतु जैन दर्शन के अनुसार यह भी एक भावात्मक पदार्थ है। अभाव नाम की तो कोई वस्तु ही नहीं है। उसी तरह छाया, प्रतिछाया, प्रकाश और ताप आदि सब पुद्गल की ही विविध अवस्थाएं हैं।
पूर्व में विज्ञान शब्द, प्रकाश, छाया और ताप आदि को शक्ति रूप स्वीकार करता था। कितु अब एनर्जी नाम का, मेटर से कोई पृथक् भूत पदार्थ है; उनकी यह मान्यता बदल गयी है जो कि जैन दर्शन से पूर्णतया सम्मत है। आईसटाइन ने स्पष्ट कहा है कि शक्ति और द्रव्य कोई पृथक्-पृथक् पदार्थ नहीं हैं। इन्हें एक-दूसरे में बदला जा सकता है। उसी 1 सर्वा सि 9 225 2 जैन दर्शन और आधु विज्ञान, 46