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उसकी मन तंत्री अपने स्व स्वरूप को हृदयंगम करने की ओर तत्पर होती है तो उसके व्यवहार व विचार की दिशा बदल जाती है । वह अपने आदि अन्त को सोचने समझने के लिये मुत्सुक हो उठता है।
"भाची की अनिश्चितता उसको सर्व प्रथम अपने भूत को समझने के लिये उत्साहित करतीहै, जड़ात्मक पदार्थों के माध्यम से अपने आप को जानने का जब सुयोग नहीं मिलता तो व्यक्ति अपने अन्तर भावों की शोध करता है ताकि अपने यथार्थ स्वरूप का दिग्दर्शन कर सके । भाव उसके अपने होते हैं चाहे वे स्वकीय हों अथवा पर प्रभावोत्पन्न हों, अतीत के भावों की पूजीभूत स्मृति उसके समस्त मे परिब्याप्त रहती है । वह एक २ कर अपने उदीयमान भावों के आधार पर समस्त भाव समूहों का पर्यवेक्षण करता है । ऐसे अन्तर पर्यवेक्षण के समय उसकी इच्छायें वाह्य भोगों ( प्रवृत्तियों ) से कभी कुछ विरक्त हो कभी कुछ विमुख होतो कभी कुछ उद्विग्न हो, उसको अन्तर परिशुद्धि के लिये उत्साहित करती हैं । इन अवस्थाओं में कोई
औपशमिक हैं तो कोई क्षयोपशमिक तो कोई विशेष परिशुद्धि होने के कारण क्षायिक, औदायिक व पारिणामिक भाव तो सदा सामान्य रूप से प्रत्येक संसारासक्त जीव को संपूर्णतया श्रावृत्त कर आवागमन करते ही रहते हैं"। .
उपरोक्त पाँच भावों का हम विशेष स्पष्टीकरण क्या करें, इनके बोध द्वारा जीव को अपनी अंतर परिशुद्धि में बहुत संहायता मिल सकती है यह निस्संदेह है । अपने अन्तर के स्वरूप