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( ८२ ) सकती । अतः अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों के उपयोगी तत्व विवेचनों के साथ २ जैन तत्वानुसंधान पद्धति को भी उचित मान मिलना चाहिये। __ भाव चिंतन में जैन संस्कृति की प्रगति सर्वाग्र रही है, और यहां भी उन्होंने युक्ति का आश्रय नहीं छोड़ा-यह उसकी विशेषता है। औपशमिक व क्षायिकादि साथ २ औदायिक व पारिमाणिक आदि भावों का वर्गीकरण कितना सुन्दर है यह विज्ञ ही समझ सकता है। चित्त वृत्तियां चाहे सुखान्वेषी हों या दुखान्वेषी उनमें प्रेरणा तो रहती है ( इच्छा करके कोई भी दुख को ग्रहण नहीं करता किंतु परिस्थितियां दुख भी लाती हैं। इन प्रेरणाओं के सम्पर्क में आने वाले को कष्ठ अथवा आराम मिलता है। विकास का क्रम यों है:___"सांसारिक बोध उपलब्ध कर मानव पर दुख से प्राप्त होने वाले सुखको हेय मान जब उसका परित्याग करनेको उद्यत होता है तो उसके विचार व्यवहार में विशेष प्रकार की सौम्यता व प्रौढ़ता आती है और परिणामतः वह उपस्थित परिस्थितियों के कार्य कारण, का अनुमान करने का प्रयत्न भरता है । यही प्रारम्भ होताहै उसका अज्ञात अनंतके कक्षको भेदने का प्रयास । ____ "प्रेरणायें भौतिक परिस्थितियों को समझने की ओर सर्व प्रथम बढ़ती हैं, तदुपरांत वस्तुओं के निर्माण, स्थिति व ध्वंश के कारणों का अनुसंधान किया जाता है तथा समय सुयोग पाकर नव निर्माण की ओर भी अग्रसर होने का अक्सर आता है। इस तरह भौतिक उन्नति की ओर जाते हुये जहां कहीं