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ऊपर कहा जा चुका है कि मनोभावनाओं से आकाश क्षेत्र में स्पंदन पैदा होते हैं । इन स्पंदनों से ( जो वस्तुतः पुद्गलों में होते हैं) आत्मा अनेक प्रकार के, भावी क्रिया के अनुरूप सूक्ष्म अणु
स्कंधों को ग्रहण करता है इस ग्रहण से जो परिणाम ऋणु स्कंधों पर पड़ते हैं एवं व्यवहार में जो परिवर्तन होते हैं वे तो हुए अवधि का विषय, पर मनोभावों में जो प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है क्योंकि मत अवधि के पहुँच से परे की वस्तु है । मनोभावनाऐं जड़ के समान, रूप धारण नहीं करती- उनका स्वरूप विशिष्ट कोटि का होता है। मनोभावनाएं सूक्ष्मतम चिंतन क्रिया की जननी हैं। चिंतन क्रिया के पूर्व मनःप्रांगण में अति सूक्ष्म स्पंदनों का प्रादुर्भाव होता है । व्यवहारोपयोगी चिंतन व इस अंतर चिंतन में बहुत भेद है ।
अंतर चितन के पूर्व मनोभावों में होने वाले स्पंदन विशिष्ट प्रकार का आकार धारण करते हैं, वस्तुत: यह आकार चतुप्राह्य आकार के सदृश नहीं होता । यह आकार मनोगत भावों का अनुशरण करने वाली वाह्य प्रवृत्तियों का पूर्व रूप है | चेतन के अत्यंत सन्निकट रहने वाला यह मनोभावों का स्पंदन व उनका आकार ? यथार्थ बोध के लिये विशेष शुद्ध परिणति की अपेक्षा रखते हैं। जैन सिद्धांत ने इस तरह के बोध की विशिष्ट प्रक्रिया को मनः पर्याय है ज्ञान कहा है । इस ज्ञान का विषय जितना सूक्ष्म उतना ही मनोमुग्धकारी है ।
ज्ञान की परिभाषा करते समय किया गया विस्तृत विवेचन अत्यंत आकर्षक है एवं बुद्धि प्रागल्भ्य की प्रगाढ़ उन्नति का