________________
- अर्थ का स्वरूप व व्यंजन द्वारा होने वाला अवग्रह सचमुच विचार के तलस्पर्शी सिद्धांत हैं । मन को जैन परिभाषा में "नोइन्द्रिय" कहा गया है । इन्द्रियों से परे होने पर भी मन आत्मा का विशिष्ट शक्ति सम्पन्न बाह्य प्रवृत्तियों के लिये सर्व प्राप्त माध्यम-साधन है।
श्रुतज्ञान को मति पूर्वक माना है जैनों ने । रूपवान पदार्थों (सूक्ष्म व स्थूल बड़) को ग्रहण करने वाले विशिष्ट ज्ञान अवधि की व्यवस्था अनोखी वस्तु है। साधारणतः अन्य सिद्धान्त व्यवस्थाओं में रूपवान पदार्थो को ग्रहण करने के लिये अधिकांश, चक्षु को ही माध्यम माना गया है, पर जैन संस्कृति यहां रुकी नहीं उसका सदा यही कहना रहा कि नेत्रों की पहुच अत्यल्प है । नेत्र बाह्य साधन मात्र हैं, आज हैं कल नहीं एवं आड़ में रहे. हुये पदार्थ का ज्ञान उससे होता नहीं, अतः प्रत्यक्ष या परोक्ष में रहे हुये रूपवान पदार्थ को ग्रहण करने के लिये अन्तर विचार से सम्बन्ध रखने वाला कोई अन्य सूक्ष्म मार्ग होना ही चाहिये। .
. ___यह पहले ही कहा जा चुका है कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर . मनोभावों द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्मतर क्रमशः सूक्ष्मतम अणुस्कंध ग्राह्य होते हैं। स्थूल इंद्रियोंपयोगी अणुओं की अपेक्षा . सूक्षमाणु स्कंध विशेष शक्ति सम्पन्न होते हैं व निर्माण बंश के कार्य कारणों का रहस्य इन्हीं में छिपा रहता है। इन्हीं . सूक्ष्मअणुः परमाणु स्कंधों को जो स्थूल स्कंधों (दृश्यमानचक्षुग्राह्य व्यवहार्य पदार्थो) के निर्माण के कारण स्वरूप हैं, ..