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विशिष्ट रूप में विशिष्ट नियत नियमानुसार पदार्थों का स्थायित्व व व्यवहार संभव नहीं हो सकता । - इन सब द्रव्यों में अस्खलित अट्ट भावधारा के हेतु एक मात्र जीव में ही भाव शक्ति का संचरण है, रूप रस गंध स्पर्श आकामा काल गति स्थिति किसी में अनुभव करने की शक्ति नहीं है अतः कोई भाव युक्त नहीं कहा जा सकता । जीव ही भावना प्रवाही शक्ति के कारण सुख दुख का अनुभव करता है । ___ अतः यही जीव कभी कर्ता, कभी भोक्ता, कभी नियंता बनाता है, जगत् के स्वरूप को कभी किसी परिस्थिति में, तो कभी किसी संयोग में, जड़ के साथ मिल कर बनाता है बिगाड़ता है और त्रयी के अटूट नियम का मानों पालन करता हुआ भाव प्रवाह व काल प्रवाह के अनिवार्य सीमाहीन क्रम के साथ अग्रसर होता चला जाता है । जीव को पुरुषार्थ संभव अत्यंत व्यापक शक्तियों से संपन्न माना है महावीर ने; किसी का बंधन उसे नहीं होता, सिवाय अपनी भावनाओं के वह किसी के दबाव से दबता नहीं। भावनाएं ही झुक कर जड़ाश्रित हो उसकी शक्तियों को सर्वतोमुखी विकाश से रोक सकती हैं। उन भावनाओं को विचार शक्ति ( भाव शक्ति ) के सदुपयोग द्वारा उन्मुक्त कर चेतन सर्व शक्तिमान व सब कुछ का नियंता बन सकता है । महावीर की यह सिद्धांत व्यवस्था अत्यंत सुन्दर युक्ति से परिपूर्ण है।
महावीर ने इसी युक्ति का प्राश्रय ले यह स्थिर किया कि गति व स्थिति सहायक २ शक्तियों को पृथक २ तत्त्व मानने की