________________
( ५६ ' ) अपेक्षा से स्थिति है. तभी तो उदय अस्त की अट्ट धारा निरन्तर पदार्थों को जीवन धारण कराने में सहायक है।
स्थिति, गति पूर्वक होती है ( उसी वरहःगति स्थिति पूर्वक) गति का अंत करके नहीं । क्रियाशीलत्व अर्थात् गतिशीलत्व मूल दो द्रव्यों का स्वभाव है । इस गतिशीलता में जो स्थिति है-संयोगानुसार भिन्न २ रूप में परिणत होकर पदार्थ की जो क्रिया शीलता के साथ तद् रूप में काल विशेष के लिये स्थिति है वह स्थिति नियामक अधर्म द्रव्य की सहायता से ।
पृथ्वी निरंतर अपनी परिधि में सूर्य के चारों ओर गतिशील है-यह गति ही इस भूमंडल का जीवन है। क्षण मात्र के लिये भी इस महागति को रुकना पड़े तो प्रलय हो जाय-समस्त चल अचल प्राणियों अथवा पौद्गलिक पदार्थो को श्वास निरुद्ध होने पर छटपटा कर प्राण विसर्जन करने वाले जीव को तरह विलय हो जाना पड़े। इस गति को इतनो जीवनदायिनी अनिवार्यता के साथ २, आकाशमएडा को नियत परिधि में पृथ्वी को जो सीमावद्ध अवस्थिति है वह क्या गति से भी (जीवन धारण करने के लिये ) अधिक अपेक्षित नहीं ?
गति के रुद्ध हो जाने पर तो क्रमशः व्यवस्थिति का विच्छेद होगा पर "स्थिति" सीमा का उल्लंघन करदे तो, भीषण विस्फोट के आघात से प्रताड़ित पदार्थ के अवयवों की तरह समस्त वस्तुओं को क्षण मात्र में बिखर जाना पड़े।
पृथ्वी अपने आकाश मण्डल में स्थित है, यह पृथ्वी ही क्या, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि अन्य पृथ्वियां, वायु समुद्रादि