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( ३७ ) अपराश्रयी बनाया जा सकता है। यही तो बस उन्नति का यथार्थ स्वगत पथ है कि सत्य व ज्ञान, अभ्यासवश स्वाभाविक से बन जाय फिर तो मानव इन से अधिक सुन्दर, रम्य, आकर्षक या प्यार करने लायक अन्य किसीको नहीं मान सकता । वासनाओं के परिणाम स्वरूप आने वाले कालुष्य, पराश्रयता, उद्वेग, अस्थिरता, अनिश्चततादि विज्ञ मानव को उनसे विमुख रखने के लिये यथेष्ट हैं। ___ आयु शक्ति का जीव की किस २ अवस्थाओंमें क्या और कैसा स्वरूप रहता है यह पृथक विवेचन की वस्तु है, हम तो इतना ही इंगित कह आगे बढ़ते हैं कि इसी आयु व्यवस्था के कारण ही जिज्ञासु को भूत का सूत्र मिलता है एवं वर्तमान के आधार पर वह भविष्य को उज्वल बना सकता है; और तभी से प्रारम्भ होता है ज्ञान का उषाकाल । संक्षेप में इतना और कहना असंगत नहीं होगा कि मानवीय एवं अन्य प्राणियों की भाव वृत्तियों के जितने परिपूर्ण विभाग महावीर की कर्म व्यवस्था में मिलते हैं उनकी सहायता ले प्रत्येक कोटि के प्राणी की परिणाम धाराओं का वर्गीकरण किया जा सकता है ताकि अशुच्य–अनुपयुक्त करने का अवसर मिल सके।
महावीर की द्रव्य व्यवस्था में चेतन के उपरांत आवश्यक है जड़, जिसे जैन परिभाषा ने पुद्गल कह कर संबोधित किया है । जड़ की मूक शक्ति अपामेय है, सर्व व्याप्त है यह प्रत्येक स्थान में; एवं अपने अनंत रूप परिवर्तन द्वारा मानों निरंतर प्रवाह के वेग को सहस्रगुणा विशाल, व्यापक और शक्तिशाली बनाते हुए