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सुपथ पर क्यों चले । आमोद प्रमोद के सुगम मार्ग को परित्याग करने की प्रेरणा पराश्रयी होने में कभी नहीं मिल सकती ।
संसार के किसी भी दार्शनिक सिद्धांत ने महावीर की तरह सर्वथा युक्ति के आधार पर अपनी तत्त्व व्याख्या को स्थिर रखने में सफलता नहीं पाई । बिना युक्ति युक्त कारण के महावीर कभी चेतन को पराधीन या स्वाधीन बनाने को उद्यत न हो सके, तभी उनका चेतन दूसरे के हस्तक्षेप से सर्वथा विमुक्त रहा । अपने भावों व कार्यों के अनुरूप काल के अनवरत प्रवाही पथ पर चेतन की सदा अयाबाध गति से अग्रसर होते माना उन्होंने । संयोग व परिस्थियों के दबाव में दबे रहने तक चेतन की पर प्रभाव से मुक्ति कहां ? एवं भावों व कार्यों की सुसंस्कृति कहां ? संयोग व परिस्थितियों के बीच खड़े रहकर, कारण व कार्य के क्रमशः सूक्ष्म संबंध का बोध प्राप्त कर, आयुक्त परिणामी कार्यों से मुक्त होते हुए भाव जगत् में प्रवेश कर, उसी तरह क्रमशः प्रयुक्त भावों का प्रक्षालन करने से ज्ञान की शोभा अंतर में निखरती है, ज्ञान का अंधकार तिरोभूत होजाता है एवं आत्मा पर के सहारे नहीं रहता वल्कि अपने स्वातन्त्र्य को व्यक्त कर निश्चिंत आलोक पथ पर असर होता है । इस यात्रा में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं किसी के हस्तक्षेप की सम्भावना नहीं - अपने स्वत्त्व ब साधना के सहारे अप्रगति करने में सर्वथा स्वतन्त्र है आत्मा ।
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बन्धन व बाधा अपनी अज्ञानमयी निष्चेष्टता की होती है या. हो सकती है और उसे दूर करने से क्रमानुसार आलोक पथ पर जाने की योग्यता आती है ।