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लगे। दुख है कि पराधीनता को बेड़ी न पड़ जाने तक उनकी यह भ्राँति विलुप्त नहीं हुई । पराधीन होने के बाद वो क्या तो वे किसी को कुछ कहते और क्या दोषारोप करते सब कुछ तो लुटा दिया गया, फिर भी जैनों के प्रति स्वार्थियों के मुख से कभी कोई गुणोद्गार नहीं निकल पाये।
जैन संस्कृति का मूलाधार अहिंसा है, किंतु इसका अर्थ यह न था कि उन्होंने कायरता को अपनाया । अहिंसा शक्तिमान का धर्म है-जिसके भाव शुद्ध व विचार दृढ़ हों उसे अहिंसा पालन का अधिकारहै एवं ऐसे व्यक्ति में ही अहिंसा पालन की योग्यता आती है । व्यवहार में क्रम से अपनी भाव शुद्धि के अनुसार किस तरह से किस कोटि की अहिंसा का पालन क्योंकर कर सकताहै मनुष्य इसका विधान भाव साहित्य के सन्मुख महावीर की बड़ी भारी देन है । व्यवहार के जीवन में अपनीर परिस्थिति व योग्यतानुसार अहिंसा का तभी पालन होसकताहै जब अपनेर स्तर पर दृढ़ता के साथ व्यक्ति खड़ा हो सके व अपनी योग्यता
और पहुंच का उसे भान हो । अयोग्य की अहिंसा का नाम कायरता है । महावीर के शब्दों में दृढ़ता व सत्यता थी तभी समझदार कोटि के मनुष्यों ने इसे बहुत अपनाया एवं साथ २ अपनाया वीरों ने और क्रमशः सभी वर्गों में जैन सिद्धांत का प्रचार हुश्रा । आज कतिपय अनभिज्ञ व्यक्ति यह कहते नहीं लजाते कि अहिंसा प्रचार द्वारा ही भारतीयों की कायरता बढ़ी एवं वे अकर्मण्य बन गये। वस्तुस्थिति वास्तव में इसके ठीक विपरीत थी। मनुष्य को मनुष्य न मानकर उस पर अनाचार