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जैन दर्शन
हैं कि, जो वस्तु सर्वथा असत्य हो उसका निषेध नहीं हो सकता निषेध उसीका हो सकता है कि जिसकी कहींपर भी विद्यमानता न हो अतः आत्मा नहीं यह निषेध स्वयं ही आत्माके अस्तित्वको सावित करता है फिर वह चाहे जहाँपर हो। किन्तु इस वाक्यसे श्रात्माकी विद्यमानतामें जरा भी संदेह नहीं आ सकता । अर्थात् किसी भी जगह जिस वस्तुको विद्यमानता हो उसीका निषेध हो सकता है इस दलालके द्वारा आपका श्रात्मा नहीं ऐसा निपेधात्मक वाक्य भी आत्माका स्पष्ट रूपसे विधान कर रहा है, अत: अस्तित्व रखनेवाले श्रात्माका किसी भी प्रकार लोप करना ठीक नहीं मालूम देता । आत्मा नहीं है इस वाक्यका जो यह (अमुक शरीरमें आत्मा नहीं है) सच्चा अर्थ है सो सवको संमत है। क्योंकि मृतशरीरमें श्रात्मा नहीं होता यह सव ही एक समान रातिसे मानते हैं। इससे अव आत्माका निषेध हो नहीं सकता। . तथा आत्माकी सिद्धिके लिये इस प्रकारका एक दूसरा भी अनुमान प्रमाण है-इंद्रियोंके द्वारा देखे हुये प्रत्येक पदार्थका ज्ञान स्मरण इंद्रियोंकी विद्यमानता न होनेपर भी रहा करता है। अतः . यह साबित हो सकता है कि इस ज्ञानको धारण करनेवाला कोई पदार्थ इंद्रियोंसे जुदा ही होना चाहिये और जो वह जुदा पदार्थ है । वही आत्मा है । जिस प्रकार घरके गवाक्षमैले देखे जाते हुये पदार्थाका स्मरण देखनेवाले देवदत्तको रहता है उसी प्रकार इंद्रियोंके द्वारा दीख पड़ते पदार्थोंका स्मरण देखनेवाने
आत्माको रहता है । गवाक्ष या वातायनले देवदत्त सर्वथा जुदा मालूम होता है वैसे ही आत्मा भी इंद्रियोंसे सर्वथा भिन्न स्वभाव वाला है । इस प्रकार आत्माकी सिद्धि अनुमान द्वारा बहुत ही . सवल रातिसे हो सकती है। श्रात्माकी सिद्धि अनुमानसे पूर्ण" रीत्या होनेके कारण-आगम-शास्त्र, प्रमाण, उपमान प्रमाण, और अर्थापत्ति प्रमाणसे भी उसकी सिद्धि मालूम हो सकती है, क्योंकि ये सभी प्रमाण अनुमानमें समा जाते हैं । आपकी तर'फसे जो यह कहा गया है कि जो पदार्थ पांच प्रमाणोंसे न जाना । जासके उसकी विद्यमानता नहीं हो सकती, यह कथन सरासर ।