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जीववाद
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१० किसी भी जगह जिस वस्तुका अस्तित्व होता है उसीका निषेध हो सकता है । जिस वस्तुकी कहीं पर भी विद्यमानता नहीं होती उसका निषेध ही क्या ?. आप यहाँपर जीवका निषेध करते हैं अतः यह निषेध ही जीवकी विद्यमानताको सावित करने में काफी है । जिस प्रकार सर्वथा असद्रूप छटे भूतका निषेध करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती वैसे ही यदि सर्वथा जीव भी असत् रूप होता तो उसे भी निषेध करनेकी जरूरत न पड़ती। अर्थात् आप नास्तिकोंकी ओरसे किया हुआ जीवका निषेध ही जीवके अस्तित्वको साबित करा सकता है । कोई भी प्रामाणिक कदापि किसी असत् वस्तुका निषेध नहीं कर सकता । जो निषेध किया जाता है वह मात्र वस्तुफे एक दूसरेके साथ सम्बन्धका ही किया जाता है परन्तु वस्तुका नहीं। जैसे कि कोई यह कहे कि गधेके सिर पर सींग नहीं या देवदत्त घर पर नहीं तो इसका अर्थ इतना ही है कि गधे और सींगका परस्पर सम्बन्ध नहीं । वस्तुकी दृष्टिसे गधा भी है और सींग भी हैं। 'गधेके सींग नहीं' इस तरहका निषेध फक्त गधे और सींगके सम्बन्धका हीअभाव सूचित करता है । इसी तरह देवदत्त घर पर नहीं यह वाक्य भी देवदत्त और घरके वीचका जो साक्षात सम्बन्ध है उसका ही प्रतिबन्ध करता है । वस्तु स्वरूपसे देवदत्त भी है और घर भी । इस निषेध वाक्यके द्वारा इन दोनों के एक भी भावका निषेध नहीं हो सकता। इसी प्रकार दूसरा चंद्र नहीं है, घड़े जितना मोती नहीं और आत्मा नहीं है इत्यादि निषेध करनेवाले वाक्योंके भावको समझ लेना चाहिये । अर्थात् ये वाक्य चंद्र, मोती, या आत्माका निषेध नहीं, करते परन्तु चंद्रकी अनेकता, मोतीका घट जितना प्रमाण और अमुक शरीरके साथ प्रात्साका संयोग इस प्रकारकी विशेपताका ही निषेध करते हैं वाकी मोती भी है और घटके समान नाप भी है किन्तु उन दोनों में किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं है । इसी अभिप्रायसे उपरोक्त वाक्यकी योजना की गई है। इसी तरह 'आत्मा नहीं है' इस वाक्यका भी भाव ऐसा है कि अमुक शरीरके साथ आत्माका सम्बन्ध नहीं। हम पहले यह अच्छी तरह समझा चुके