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जैन दर्शन कारणरूप मानते हैं और दूसरी जगह वैसा मालूम नहीं होता तथापि वे उसी मान्यताको प्रचलित रखते हैं। जैसे कि जो पदार्थ अतीतरूप हो चुका है अथवा जो पदार्थ अवसे आगे बनेगा वे दोनों पदार्थ विद्यमान न होनेसे कारणरूप कैसे हो सकते हैं ? वे अतीतरूप और भविष्यरूप पदार्थ कारणल्प न होने पर भी ज्ञान विषयरूप कैसे हो सकते हैं ? ऐसा होनेपर भी अकारणरूप पदार्थको विषयल्प मानना यह एक प्रकारकी द्विवचनता ही है। तीसरी बात यह है कि तीनों कालके पदार्थों और व्यक्तिको ग्रहण करनेवाला ज्ञानं उन दोनों में किसी प्रकारका कार्य कारण सम्बन्धन होनेपर भी उस ज्ञानके विपयरूप तीनों कालके पदार्थोंको उस ज्ञानके विषयरूप वतलाना यह भी अपनी मान्यतासे विरुद्ध धात है। चौथी यह बात है कि यदि संव क्षणिक ही माना जाय तो फिर भिन्न २ समयमें चर्तनेवाले अन्वय और-च्यतिरेकका सम्बन्ध कैले घट सकता है और यदि वह सम्बन्ध न घट सके तो फिर तीनों कालसे लगता हुआ व्याप्तिज्ञान भी कैसे हो सकता है? वौद्ध तीनों कालसे लगते हुये व्याप्ति ज्ञानको मानते हैं और यह सब क्षणिक मानते हैं यह कैसे बन सकता है ? यह भी परस्पर विरोधवानी ही हकीकत है। पांचवाँ यह है कि सब कुछ क्षणिक माननेवालोंके पहले जन्मजन्मान्तरका सम्बन्ध सम्भवित नहीं हो सकतां तथापि बौद्धमतमें यों कहा जाता है कि “इस भवसे पहले ५चे भवमें मेरी (बुद्धकी) शक्ति द्वारा एक पुरुष मारा गया था, उसीके परिणाममें हे भिक्षुओं! मुझे कांटा लगा है" यह भी एक प्रकारका विरुद्ध ही वचन है।
छठा यह कि वस्तु मात्रको निरंश-अवयव रहित माननेवाले वौद्ध एकही चित्त संवेदनके और विकल्परहितं प्रत्यक्ष ज्ञानके अंश करके अमुक अंशको प्रमाणभूत माने और अमुक अंशको अप्रमाणभूत माने यह भी स्पष्ट रूपमें ही परस्पर विरुद्ध है। . . सातवाँ यह कि हेतुके तीन रूपोंको माननेवाले और संशयको दो रूपमै बतलानेवाले वौद्ध वस्तुको निरंशं माने इसमें विरोधके । सिवाय अन्य कुछ भी तथ्य नहीं। ,