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प्रमाणवाद
आ सकता। जैनदर्शनमें कहींपर भी जीव और अजीव वगैरह तत्वोंकी विचारणामे आगे पीछे जरा भी असम्बद्धता सम्भावित नहीं होती। तात्पर्य यह है कि अन्यदर्शनोंके मूलशाखोंम भी परस्पर असम्बद्धता फलफ पाती हैं तय फिर मलके बादके कथामन्योंकी तो बात ही फ्या! अर्थात् उन प्रन्योम पहले फुट और कहा है और पीछे कुछ और, इस तरहका विरोध मालूम हो जाता है और जनदर्शनमें जन मूलग्रन्यों में एवं अन्य प्रन्याने फहीं भी ऐसे विरोधी गन्ध नहीं आती। अन्यदर्शनोंमें भी जो कुछ अच्छी २ दोपरहित वाते हैं वे जैनदर्शनमेंकी ही हैं। इसके विषयमें श्रीसिद्धसेन दिवाकरने भी इस प्रकार सूचित किया है--" हमें इस यातपर विश्वास है कि परशास्त्रों में जो कुछ श्रेष्ठ युक्तियाँ मिलती हैं वे जिनवचनके वाक्यके विन्दु हैं और वे भी जैनोंके आगमरूप समुद्रमसे उछली हुई हैं"
अब बौद्ध वगैरह दर्शनोंमें जहाँ जहाँपर आगेपी विरोध आता हे उस विषयको यहाँपर इस प्रकार बतलाते है-चौद्धमतवाले एक जगह कहते हैं कि वस्तु मान क्षणिक है और दूसरी जगह कहते हैं कि शानका कारण पदार्थ है, अर्थात् जानकार्य रूप है और पदार्थ कारगा रूप! इस तरह वे दोनों कार्य कारणरूप होनेसे पानी विद्यमानतासे पहले अर्थकी विद्यमानता होनी चाहिये और ऐसा हो तब ही उन दोनोंका कार्य-कारणभाव घट सकता है परन्तु इस मान्यताम अर्थ पदार्थको क्षणिक मानना निभ नहीं सकता। पदार्थके अस्तित्वका एक क्षण और मान होते समयका एक क्षण ऐसे उस पदार्थको दो क्षण तक स्थिर मानना ही पड़ेगा और यदि ऐसा माना जायगा तो सव क्षणिक हैं यह सिद्धान्त बालकी दिवारके समान फिसल पड़ेगा, अर्थात उन दोमेकी किसी एक चातको सुरक्षित रखनेके लिये मानी हुई दूसरी बातको अवश्य छोड़ देना पड़ेगा, इस प्रकारका परस्पर विरोध बौद्धदर्शनमें आता है।
और भी वे यों कहते हैं कि जो विपय शानका कारणरुप हो चही शानका विषय हो सकता है, अर्थात् एक जगह विषयको