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जैन दर्शन उसमें मट्टीकी प्रतीति भी न होनी चाहिये, परन्तु ऐसा तो किसी को अनुभव नहीं होता, इस लिये यह मान्यता भी ठीक नहीं कही जा सकती। सत्य तो यह. मानना चाहिये कि जब घड़ा उत्पन्न होता है तब वह घट रूपमै उत्पन्न होता है, मट्टीके पांड रूपसे नाश पाता है और मात्र मट्टी रूपमें ही स्थिर रहता है, इस प्रकारकी मान्यताका सव ही को अनुभव होता है अतः इसमें कोई दूषण मालूम नहीं देता। जिस तरह का अनुभव लब लोगोंको होता हो उस तरहका पदार्थका स्वरुप न माना जाय तो कदापि वस्तुकी व्यवस्था नहीं हो सकती इस लिये जैसा अनुभव होता है वैसा ही पदार्थका स्वरुप भी, मानना चाहिये और ऐसा माननेसे ही इस तरहकी सर्व व्यवस्था घट सकती है। जो वस्तु नाश पाचुकी है वही किसी अपेक्षासे नाश पाती है और नाश पायेगी। जो वस्तु उत्पन्न हो चुकी है वही किसी अपेक्षासे उत्पन्न होती है और उत्पन्न होगी, जो वस्तु स्थिर रही हुई है वही किसी क्षपेासे स्थिर रहती है और स्थिर रहेगी तथा जो वस्तु किसी प्रकार नाश पा चुकी है वही किसी प्रकार उत्पन्न हुई है और किसीप्रकार स्थिर रही है। इसी तरह जो किसी प्रकारसे नाश पाता है वही किसी प्रकारले उत्पन्न होता है
और स्थिर रहता है और जो किसी प्रकारसे नाश पायेगी वही किसी प्रकारसे उत्पन्न होगी और स्थिर रहेगी इत्यादि । इस प्रकार ‘पदार्थ मात्रमें अन्दर और बाहर सर्वत्र उत्पत्ति स्थिति विनाश होता है और सब ही इस वातका प्रत्यक्षतया अनुभव करते हैं। अनुभवमें आती हुई यह सत्य हकीकत कदापि असत्य नहीं हो सकती । इस अनुसवपरसे इस प्रकार एक नियल वांधा जा सकता है कि वस्तुमान उत्पत्ति, स्थिति, और विनाशके धर्मवाली है और ऐसी होने पर वह वस्तु विद्यमानता धारण करनेकी योग्यता रख सकती है। जो जो वस्तुयें इन तीनों धर्म रहित हैं उन सबमें खरगोसके सींगके समान कदापि विद्यमानता धारण करनेकी योग्यता हो नहीं.सकंती अर्थात् इन तीनों धर्मकी विद्यमानता ही वस्तुकी सद्रूपताका मुख्य लक्षण है। नैय्यायिकों और चौद्धोंने वस्तुकी