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जैन दर्शन
स्वरूप और भेद समझने चाहिये । अव आगमप्रमाणका स्वरूपं इस प्रकार कथन करते हैं_प्राप्तयुरुपके कथनसे विदित की हुई हकीकतका नाम आगम' है। आप्नपुरुषके वचनको भी कल्पनासे आगमप्रमाणरूप माना. जाता है, जैसे कि यहाँपर जमीनमें भंडार है, या मेरु श्रादि हैं, इस प्रकारके प्राप्तवचनप्रमाणरुप माने जाते हैं। जो पुरुष या स्त्री जो पदार्थ जिस स्थिति में रहा हुआ है उसे वैसे ही स्वरूपमें जानता है और जैसे जानता है वैसे ही कथन करता है उसका नाम प्राप्तमनुष्य है । वे प्राप्त, माता, पिता और सर्वशदेव आदि हैं। इस प्रकार परोक्षप्रमाणकी समस्त हकीकत समझ लेनी. चाहिये । अन्य शास्त्रोंमें भी कहा है " कि जो विवादरहित ज्ञान है और व्यवहारकी दृष्टिसे स्पष्टरूप है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं, इसके अलावा ज्ञान परोक्ष है " " इन दोनों ज्ञानमें याने प्रत्यक्ष और परोक्षमें जितना ज्ञान विवादरहित है उतना वह प्रमाणभूत है
और जितना विवादग्रस्त है उतना अप्रमाणभूत है"। अर्थात् एक ही ज्ञान जिस विषयमें विवादरहित है उस विपयमे प्रमाणभूत है और जिस विषयमें विवादवाला है उस विषयमें अंप्रमाणभूत है। जैसे कि जिस मनुष्यकी आंखों में तिभिरका रोग हुआ हो वह दो चंद्रमा देखता है, अब उसका चंद्र देखनेका ज्ञान तो प्रमाणभूत है, परन्तु चंद्रकी संख्या जाननेका ज्ञान अप्रमाणभूत है। इस प्रकार एक ही विषयसे सम्बन्ध रखनेवाला एक ही ज्ञान विवाद
और अविवादकी दृष्टिले प्रमाणभूत और अप्रमाणभूत हो सकता है। प्रमाणकी प्रामाणिकता और अप्रमाणिकता उसके विवाद: वाले एवं अविवादवाले ज्ञानपर निर्भर है।
अवतक के उल्लेखसे यह वात निश्चित हो चुकी है कि प्रमाण दो ही हैं और वे प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष हैं। मतिज्ञान, श्रुतशान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान इन पांचोमेसे प्रथमके दो ज्ञान वास्तविक रीत्या परोक्ष हैं और वाकीके तीन ज्ञान याने अवधि ज्ञान मनःपर्याय ज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्षरुप हैं। __ इस विषयको सूचित करनेवाले श्लोकके उत्तरार्धका अर्थ इस