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जैन दर्शन वह दूसरेको ज्ञानका निमित्त बननेसे सिर्फ कल्पनासे ही प्रमाणरूप कहा जा सकता है। सत्य प्रमाण तो वही कहा जा सकता है कि जो ज्ञानरूप हो। जो मनुष्य कम वुद्धिवाले हैं उन्हें समझानेके लिये. तो पक्ष और हेतुले उपरान्त दृष्टान्त उपनय और निगमनका भी प्रयोग करना पड़ता है। दृष्टान्तके दो प्रकार हैं-एक अन्वयदृष्टान्त और दूसरा व्यतिरेक । जहाँ जहाँ पर हेतु हो वहाँ वहाँ पर यदि निश्चिततया साध्यकी भी विद्यमानता मालूम होती हो तो उस स्थानका नाम अन्वयदृष्टान्त है। जिन जिन स्थानों साध्यकी अविद्यमानता होनेपर निश्चयरूपले हेतुकी भी अविद्यमानता मालूम होती हो उस स्थानका नाम व्यतिरेक दृष्टान्त है जैसे कि जहाँ जहाँ पर धूम्र हो वहाँ सर्वत्र असि मालूल होता हो या मालूम हुआ हो वैसे स्थान रसोड़ा, हलवाइकी दुकान और यशका कुण्ड ये समस्त अन्वय दृष्टान्त हैं और जहाँ जहाँ पर अग्नि हो वहाँ सर्वत्र धूम्र भी न हो वैसे स्थान नदी, सरोवर और पानीका कुण्ड, ये समस्त व्यतिरेक दृष्टान्त हैं। हेतुके उपसंहारका नाम उपनय है और प्रतिक्षाके उपसंहारका नाम निगमन है। पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन ये पांचों अनुमान ज्ञानके अवयव हैं। इनका उदाहरण इस प्रकार है १ पक्ष-परिणामवाला है। २ हेतु, क्योंकि यह किया जाता है इस लिये । ३ दृष्टान्त-जो जो किया जाता है सो समस्त परिणामवाला है, जैसे कि घट। ४ उपनय-शब्द भी लिया जाता है । ५ निगमन-इस लिये यह भी परिणामवाहा होना चाहिये इत्यादि । अन्य भी कितने एक मनुष्य हेतुके तीन लक्षण दुसरी तरह बतलाते हैं। वे कहते हैं कि "जो वस्तु पक्षमें रहती हो, लपक्षमें (अन्वयदृष्टान्त) रहती हो और विपक्षमें व्यतिरेक हटान्त में न रहती हो उसका नाम हेतु-साधन है।" परन्तु उनका यह कथन यथार्थ नहीं है क्योंकि कितने एक हेतु ऐसे होते हैं कि जिनमें ये तीनों ही लक्षण वरावर घट सकते हैं, परन्तु वे स्वयं कुतुरुप होते हैं। तथा कितने एक हेतु ऐसे भी मिलते हैं कि जिनमें ये तीनों लक्षण यथार्थ गीतले न घटते हो तथापि वे स्वयं सुहेतुरुप होते हैं। जैसे कि आकाशमें चन्द्र है