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प्रमाणवाद
१६३ रहता है, इस तरहके वोधका नाम ऐतिहप्रमाण है। यदि यह वात किसी प्रामाणिक पुरुषने कही हो तो यह प्राप्त वाक्यरूप होनेसे परोक्षके प्रकाररूप आगमप्रमाणमें समा जाता है। यदि वह एक प्रकारकी असत्य गप्प ही हो तो अप्रमाणरूप है । इस तरह जो ऐतिह्य सत्य है वह परोक्षप्रमाणमें समा सकता है और जो असत्य है वह प्रमाणरूप ही नहीं, अतः ऐतिह्य प्रमाणको भी जुदा गिननेकी जरूरत नहीं। प्रातिभ प्रमाणका स्वरूप इस प्रकार है-जो ज्ञान खास कारण या किसी चिन्हके विना ही कभी कभी अकस्मात् उत्पन्न होता है उसका नाम प्रातिभ--(प्रतिभा द्वारा होनेवाला) ज्ञान है । जैसे कि किसीको सुबह उठते ही यह मालूम हो कि आज तो मुझपर राजा प्रसन्न होगा, इस प्रकारके ज्ञानको प्रातिभ ज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान मात्र सनके द्वारा ही होता है, इसमें इन्द्रियाँ या ऐसा ही और भी कोई निमित्तरुप नहीं होता और यह ज्ञान स्पष्टतया होता है, अतः इसका समावेश भी प्रत्यक्ष प्रमाणमें हो सकता है। इस लिये इसे भी भिन्न कल्पित करनेकी कोई आवश्यकता नहीं। तथा जो प्रातिभ ज्ञान मानसिक प्रसन्नता
और मानसिक उद्धेगसे होता है, अर्थात् आज तो स्वाभाविक ही मन विशेष प्रसन्न है इससे जरुर कुछ न कुछ लाभ होना चाहिये, अथवा
आज तो निष्कारण ही मनमें उच्चाटन हुआ करता है अतः कुछ जरूर विन होना चाहिये, इस प्रकारका प्रातिभज्ञान कार्यकारण ज्ञानके समान होनेसे स्पष्ट ही अनुमानरुप है। जैसे किसी जगह बहुतली चीटियाँ देखकर यह कहा जाय कि अब वृष्टि होगी, यह ज्ञान अस्पष्ट है और अनुमानरूप है वैसे ही वह प्रातिभ ज्ञान भी अस्पष्ट और अनुमानरूपही है। इसी प्रकार युक्तिप्रमाण और अनुपलब्धि प्रमाणका भी प्रत्यक्ष और परोक्षमेसे चाहे जिल प्रमाणमें समावेश करना चाहिये । उपरोक्त ग्यारह प्रमाणांसे भी जो अधिक प्रमाण कल्पित किये हों और वे प्रमाणत्वको प्राप्त करनेकी योग्यतावाने हो अर्थात् ज्ञान होनेके साधनरुप हो तो उनका प्रत्यक्ष या परोक्ष इन दोनों से किसी एक प्रमाणमें समावेश कर देना चाहिये । इस प्रकार दो प्रमाण हैं, एक प्रत्यक्ष