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जैन दर्शन
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श्रभावप्रमाणसं गिना जाय तो यह भी यथार्थ नहीं, क्योंकि ऐसा वोध प्रत्यक्षरूप होनेके कारण उसका समावेश प्रत्यक्ष प्रमाणम ही हो जाता है, अतः अभाव प्रमाणको जुदा कल्पित करनेकी श्रावश्यकता मालूम नहीं देती । वह स्थान घटरहित है यह ज्ञान जैसे प्रत्यक्षरूप हैं वैसे ही कहीं पर ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञान प्रमाणसे भी हो सकता है । जहाँ जहाँ पर अग्नि न हो वहाँ सर्वत्र धूम्र भी नहीं हो सकता, इस प्रकारका प्रभावज्ञान तर्क द्वारा भी हो सकता है। वहाँपर धूम्र नहीं क्योंकि अग्नि नहीं है, इस प्रकारका - अभावज्ञान अनुमान द्वारा भी हो सकता है । ' घरमें देवदत्त नहीं है ' इस प्रकारका प्रभावज्ञान किसीके कहने से याने वचनसे भी हो सकता है। इस तरह जुदे जुदे प्रकारसे प्रभावज्ञानका समावेश जुदे २ प्रमाणा में हो जानेके कारण उसे एक जुदे प्रमाणरूपसे कल्पित करना सर्वथा व्यर्थ है । अव यादे यों कहा जाय कि ज्ञानरहित आत्मा अर्थात् जहाँपर आत्माको किसी प्रकारका ज्ञान न 'हो वैसी स्थितिका नाम अभाव प्रमाण है, तो यह बात भी अनुचित है। क्योंकि यदि आत्मामें ज्ञान न होता हो तो फिर वह अभावको भी किस तरह जान सके ? या बतला सके ? आत्मा यह तो जानता ही है कि यह स्थान घटरहित है अतः इस प्रकारके प्रभाव ज्ञानवाले श्रात्माको ज्ञानरहित कैसे कहा जाय ? 'इसलिये किसी तरह भी आत्मा के प्रभाव प्रमाणके स्वरूपको स्थाननहीं मिलता, इससे उसे जुदे प्रमाणरूपमें कल्पित करना सर्वथा 'अनुचित मालूम देता है । श्रव सम्भव प्रमाणका स्वरूप कथन करते हैं- इतने मनुष्य इस कमरे में समा सकेंगे, सम्भव है कि इस 'दौनमें भरी हुई जलेवियाँ रामचंद्र खा सकेगा, सम्भव है कि इस घटमें भरा हुआ रस उस वर्तनमें प्रा जाय, इस प्रकारके अटकल पच्नू ज्ञानको सम्भव प्रमाण कहते हैं । यदि वास्तविक रीति से विचार किया जाय तो ऐसे अटकलपच्चू ज्ञान अनुमानमें ही समा जाते हैं, अतः सम्भव प्रमाणको परोक्षप्रमाणरूप अनुमानसे जुदा कल्पित करनेकी आवश्यकता ही नहीं । ऐतिह्य प्रमाणका स्वरूप इस प्रकार है- पहले वृद्ध मनुष्य यों कहते थे कि इस बड़के पेड़पर भूत