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जैन दर्शन
निर्जरा और मोक्ष अव वन्धतत्वका स्वरूप कथन किये वाद निर्जरातत्वका स्वरूप कहते हैं
जो जो कर्म जीवपर लित हो गये हैं उनके झड़ जानेको निर्जरा कहते हैं और जीव एवं शरीरका जो सर्वथा वियोग-फिरसे कदापि संयोग न हो इस प्रकारका वियोग उसे मोक्ष कहते हैं।
वारह प्रकारके तप द्वारा जीवके साथ लगे हुये ज्ञानावरणादि कर्म झड़ जाते हैं इसे निर्जरा कहते हैं और यह निर्जरा दो प्रकारकी है-सकाम और अकाम । जो मनुष्य अपनी इच्छासे कठिन तप करते हैं, ध्यान धरते हैं और वाईस प्रकारके परीष होको सहते हैं । तथा मस्तकके केशोंका लुचन करते हैं एवं अनेक प्रकारसे अपने देहका दमन करते हैं तथा अठारह शीलांगोको धारण करते हैं, किसी प्रकारके परग्रहको धारण नहीं करते, शरीरके प्रति जरा भी मूछी नहीं रखते और शरीरका मैल तक भी साफ नहीं करते इस प्रकारके श्रात्मलीन-महानुभावों एवं महा तपस्वीयोंकी निर्जराको सकाम निर्जरा कहते हैं। जो मनुष्य अनिश्चित्त किसीकी पराधीनतासे अनेक प्रकारके शरीर और मनके लाखों दुःखोंको सहन कर सकते हैं उनकी निर्जराको अकाम निर्जरा कहते हैं। ___ सोक्षतत्वका स्वरुप इस प्रकार है-औदारिफ, वैक्रिय, श्राहारक.. तैजस और कार्मण ये पांच शरीर, इंद्रिया, आयुष्य, आदि वाह्य प्राण, पुण्य, अपुण्य, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, जन्म, पुरुषत्व स्त्रीत्व और नपुंसकत्व कषाय वगेरह संघ अज्ञान और प्रसिद्धत्व वगैरह का सर्वथा विभाग इन पूर्वोक्त सर्व वस्तुओंका फिर कदापि संयोगही न हो इस प्रकारका जो वियोग है उसे मोक्ष कहते हैं।
यदि यों कहा जाय कि आत्माको शरीरका वियोग सम्भवित हो सकता है क्योकि उसका संबंध ताजा ही हुआ है। परन्तु राग द्वेषका वियोग होना सम्भावित नहीं क्योंकि जो वस्तु अनादिकी • है उसका कदापि नाश नहीं हो सकता । जैसे कि आकाश अनादि