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सम्बर और बन्ध
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और मोहकी प्रवृत्तिवाले आत्माके एक २ प्रदेशपर चारों तरफ भरे हुये कर्मके परमाणु चिपट जाते हैं । ऐसी स्थिति में रहे हुये संसारमें परिभ्रमण करते हुए आत्माको हम अनेकान्तवादी इस अपेक्षासे मूर्त भी मानते हैं । इस पूर्वोक युक्तिसे हाथ पैर रहित श्रात्मा कर्मके परमाणुयोंको किस तरह ग्रहण कर सकता है ? यह कल्पना असत्य साबित होती है । कर्मका वन्ध दो प्रकारका है एक प्रशस्त बन्ध और दूसरा प्रशस्त बन्ध है । तथा कर्मका बन्ध चार प्रकारका भी है, प्रकृतिवन्ध, स्थिति बन्ध, रसवन्ध और प्रदेशबन्ध | प्रकृति याने स्वभाव, जैसे ज्ञानावरण नामक कर्मका स्वभाव ज्ञानको श्राच्छादित करने याने उसका आविर्भाव न होने देनेका है । स्थिति याने कर्मको, ठहरनेकी मर्यादा, जैसे कि अमुक कर्म अमुक वक्त तक ठहर सकता है । इस मर्यादाके होनेका कारण वृत्तिकी तीव्रता और मन्दता है । रस याने श्रात्माकी शक्तिको दावनेकी कर्ममें रही हुई ताकत, जैसे कि अमुक प्रकारका ज्ञानावरण कर्म, आत्माके अमुक ही ज्ञानको दवा सकता है । प्रदेश याने कर्मके अणुओं का समूह । इस प्रकार मुख्यतासं कर्मवन्धके ये चार भेद हैं । तथापि इनके आठ और एकसौ अट्ठावन प्रकार भी हो सकते हैं । आठ प्रकार तो इनकी मूल प्रकृतिके हैं और ये इस तरह हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, नाम, गोत्र, और आयुष्य । इनकी उत्तर प्रकृतिके सव मिलकर १५८ भेद हैं और वे भी वृत्तिकी तीव्रता, तीव्रतरता, तीव्रतमता, तथा मन्दता, मन्दतरता, मन्दतमताके कारण बहुत प्रकारके हो जाते हैं
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जिज्ञासु मनुष्यको ये समस्त कर्मबन्धके प्रकार कर्ममन्यसे जान. लेने चाहिये ।