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जीववाद
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हुए भी किसी कारणके लिये न जान पड़ती हुई वस्तु किसी न किसीके जानने में आनेवाली होनेसे अस्तित्ववाली मानी जा सकती है वैसे ही विद्यमान होते हुये भी धर्मास्तिकाय वगैरह मात्र केवल शानीको मालूम होनेसे उसका अस्तित्व क्यों नहीं माना जाय ! अथवा कभी भी न दीखनेवाले परमाणु सिर्फ उनसे धननेवाली वस्तुओंके लिये अस्तित्ववाले माने जाते हैं वैसे ही हमसे नहीं देखे जाते हुए धर्मास्तिकाय वगैरह भी उनमें होनेवाली प्रवृत्तियों द्वारा उनका अस्तित्व क्यों न माना जाय? धर्मास्तिकाय वगैरहके कारण जो जो प्रवृत्तियाँ होती हैं वे इस प्रकार है-धर्मास्तिकाय गतिवान पदार्थीको सहायता करता है, अधर्मास्तिकाय स्थितिवाले पदार्थोको सहाय करता है, आकाशास्तिकाय, अवगाह प्राप्त करनेवाले पदार्थको अवगाह देता है, और काल नामक भाव वर्तते हुए पदार्थोके वर्तनमें सहाय करता है । पुद्गलोंके विषयमें हमें कुछ कथन करनेकी जरूरत नहीं। क्योंकि वे प्रत्यक्ष देखनेगे भाते हैं और अनुमान द्वारा भी मालूम हो सकते हैं। अब यदि यों कहा जाय कि आकाश आदि तो उनकी प्रवृत्तिके लिये विद्यमानतावाने माने जा सकते हैं, परन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायको अस्तित्ववाला किस तरह माना जाय? धर्मास्तिकाय और अध. मास्तिकायको विद्यमानतावाला माननेकी युक्ति इस प्रकार है
जैसे चलनेकी इच्छावाली मछलीको चलनेमें नदी, तालाव समुद्र वगैरह जलाशयका पानी सहाय करता है वैसे ही गति परिणामवाले जड़ या चेतनको गति करनेमें धर्मास्तिकाय सहा. यक है। मछलीको पानी. जवर्दस्ती नहीं चलाता वैसे ही धर्मास्तिकाय तत्व भी किसी पदार्थको जवरदस्ती गति नहीं कराता । वह तो मात्र जैसे उड़नेमें पक्षीको आकाश निमित्त रूप है वैसे ही गति होनेमें निमित्तरूप है, याने अपेक्षा कारण है । जैसे वैठ जानेकी इच्छावाले मनुष्यको बैठनेमें जमीन सहायता देती है वैसे ही अधर्मास्तिकाय तत्व भी स्थितिके परिणामवाले पदार्थ. मात्रको स्थिर होनेमें सहाय करता हैं। जमीन किसी भी पदार्थको जबरदस्ती नहीं बैठाती वैसे ही अधर्मास्तिकाय भी किसी भी