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जीववाद
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कोई यह कह सकता है कि रंग, रूप या आवाज है ही नहीं ?
४ मनकी अस्थिर स्थितिके कारण भी विद्यमान पदार्थोंका. खयाल नहीं आ सकता जैसे कि कोई धनुष्यधर वाणोंके चलाने में ही चित्तको लगाकर बाण चला रहा हो उस वक्त उसके समीपसे बड़ी धामधूमके साथ यदि कोई राजा भी चला जाय तथापि उसे यह बात मालूम नहीं पड़ती । क्यों कि उस वक्त उसका चित्त राजाको देखने में स्थिर नहीं है, इससे वह धनुष्यधर या अन्य कोई मनुष्य यह नहीं कह सकता कि उसके नजीकसे कोई राजा गया ही नहीं। जिनका मन स्थिर नहीं है वैसे पागल मनुष्य तो कुछ जान ही नहीं सकते, इससे क्या कोई मनुष्य विद्यमान पदार्थाके माननेमें आनाकानी कर सकता है?
"जो बहुत सूक्ष्म पदार्थ होता है वह भी नहीं देखा जा सकता जैसे कि घरकी जालियों से बाहर निकालता हुआ धुवाँ और वाफके प्रसरेणु हमसे देखे नहीं जा सकते, वैसे ही परमाणु
और द्वणुक एवं बारीक बारीक निगोद भी देखे नहीं जा सकते। क्योकि ये सब बहुत ही धारीक हैं। इससे कोई यह नहीं कह सकता कि प्रसरेणु, द्वणुक, परमाणु, या निगोदका अस्तित्व ही नहीं।
६ कुछ आड़ आ जानेले भी विद्यमान वस्तु देखनेमें नहीं आती। जैसे कि दीवार वीचमें आनेके कारण उसके पीछे रहे हुये पदार्थ नहीं देखे जाते। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ पर पदार्थही नहीं, अथवा हमारी मतिमंदताके कारण कोई किसी यथार्थ वातको भी हमनजान सकें तो इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह वात ही नहीं। इसी प्रकार हमारे कान, हमारी गर्दन मस्तक और पीठ, तथा चंद्रमाका उस तरफका दूसरा भाग इन सवं वस्तुओंको हम मात्र किसी न किसी पाड़ताके कारण ही नहीं देख सकते । इससे क्या हमसे यह कहा जा सकता है कि इन वस्तुओका अस्तित्व ही नहीं? तथा समुद्रके पानीके नापका परिमाण हम नहीं निकाल सकते इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उसका कुछ नाप ही नहीं। स्मरण शक्ति कम होनेके कारण हम देखी