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जैन दर्शन
समान पानी, वायु और तेजमें भी ये चारों गुण हैं, एवं पृथ्वीके परमाणुके समान मनमें भी ये चारों गुण विद्यमान हैं। क्योंकि मन सर्व व्यापी वस्तु नहीं है । जो वस्तु सर्वव्यापी नहीं होती उसमें ये चारों गुण होते हैं । अतः मनमें भी इन चारों गुणोंका अस्तित्व घट सकता है ।
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स्पर्श आउ हैं और वे इस प्रकार हैं-कोमल, खरदरा, भारी, हलका, ठंडा, गरम, चिकना, और रुझ । इन माठ स्पशमेंके चार ही स्पर्श (चिकना, रुक्ष, ठंडा, और गरम ) परमाणुओं में रह सकते हैं और बड़े बड़े स्कंधोंमें ये आठों स्पर्श यथोचितपनसे हो सकते हैं। रस पांच प्रकारके हैं--और वे इस तरह हैं ' कड़वा, तीखा, ( चर्चरा) कपायित, खट्टा, और मधुर-मीठा ' | खारे रसका मधुर रसमें समावेश समझ लेना चाहिये ऐसा बहुतसे मनुष्योंका कथन हैं। कितने एक कहते हैं कि खारा रस एक दूसरे रसके संसर्गसे पैदा होता है । गन्धके दो भेद इस तरह हैं- एक सुगन्ध और दूसरा दुर्गन्ध । वर्ण भी अनेक प्रकारके हैं। जैसे कि काला, पीला, नीला, और सुफेद वगैरह। ये चारों गुण याने स्पर्श, रस, गन्ध, और वर्ण प्रत्येक पुद्गलमें रहते हैं, तदुपरान्त शब्द, बन्ध, सूक्ष्मपन, मोटापन, आकार, खन्डोखन्ड होना अथवा एक दूसरेसे जुदा होनापन, अन्धकार, छाया, श्रातप, और प्रकाश ये भी सव पुद्गलमें रहते हैं। इसी प्रकारका वर्णन तत्वार्थसूत्रमें भी किया गया
| शब्द याने ध्वनि - आवाज होता है। एक दूसरेके साथ परस्पर लिप्त हो जानेकी क्रियाको बन्ध कहते हैं । वह बन्ध कहीं पर तो किसी प्रयोगसे होता हुआ मालूम देता है और कहीं पर सहज स्वाभाविक ही होता है । जैसे लाख और काष्टका परस्पर वन्ध होता है, या जैसे परमाणु परमाणुओंके संयोगसे परस्पर जो बन्ध होता है वैसे ही श्रदारिक वगैरह शरीरोंमें भी उन उन अवयवोंका परस्पर वन्ध होता है। पूर्वोक्त स्पर्श वगैरह चार और दस शब्द वगैरह एवं चौदह गुण पुद्गलमें ही होते हैं । पुद्गलके दो प्रकार हैं- एक परमाणुरूप और दूसरा स्कंध रूप, याने आँखोंसे देखा जाय वैसे दनवाला । उनके पर