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जैन दर्शन
साम्रो मालूम देती हुई वर्तना आदि क्रियायें कालकी विद्यमानता की निशानी हैं । तत्वार्थसूत्रमें वतलाया है कि कालके लिये वर्तना, परिणाम, किया, परत्व और अपरत्व वगैरह भाव वस्तु मात्रमें मालूम हुआ करते हैं। अपने आप ही वर्तते हुए पदार्थाको वर्तनेमें सहाय करनेवाली और कालमें रही हुई एक प्रकारकी शक्तिको वर्तना कहते हैं प्रत्येक पदार्थकी प्रथम स्थितिका नाम. वर्तना है। जो कोई पदार्थ अपना मूल स्वभाव छोड़े विना ही किसीकी प्रेरणाले या सहज ही किसी प्रकारके परिवर्तनको प्राप्त करता है उल परिवर्तनका नाम परिणाम है। जैसे कि वृक्षकी जड़ और अंकूर ये अवस्थायें परिणामरूप हैं, पहले अंकूर था अब शाखायें निकाली और अवसे वे फूल और फलको प्राप्त करेंगी । इसी प्रकार जो वालक था अव वही तरुण है और श्रवसे वहीं वृद्ध होगा। इस तरहके अनेक व्यवहारोंमें वृक्षका वृक्षत्व और पुरुषका पुरुषत्व कायम रहते हुये भी जो अनेक प्रकारका परिवर्तन है वैसा ही कालके विषय में भी समझ लेना चाहिये।
परिणामके दो प्रकार हैं-एक अनादि परिणाम और दूसरा सादि परिणाम। अनादि याने जिसका प्रारम्भसमय मालूम नहीं होता और सादि याने जिलका प्रारम्भ मालूम हो सकता है। धर्मास्तिकाय वगैरह असूर्त पदार्थामें जो परिणाम होता है या जो मालूम देता है वह अनादि है और बादल एवं इंद्रधनुष्य वगैरह मूर्त (आकारवाले) पदामि एवं इसी प्रकारके घट, कमल और स्तंभ वगैरह पदार्थों में जो परिणाम होता है वह सादि है । ऋतुके विभागके कारण और समय परिवर्तनके कारण एक समान वृक्षोंमें भी एक ही समय विचित्र परिवर्तन होता है। यह सव कुछ परिणामवादमें आ जाता है। किसी तरहके प्रयोग द्वारा या स्वा. भाविक हो जीवोंके परिणमनको चिया कहते हैं। काल नामक भाव उस झियाके होनेमें सहायरूप है। जैसे कि घड़ा फूट गया, सूर्यको देखता हूँ और वृष्टि होगी, इत्यादि परस्पर मिश्रण रहित . व्यवहार जिसकी अपेक्षाले प्रवर्तते हैं उसका नाम काल है। एवं. वह बड़ा है और यह छोटा है इन दोनों व्यवहारोंका निमित्त भी