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जीववाद
स्तिकायकी विद्यमानतामें ही भाकाश अपना भवगाह देनेका सामर्थ्य बतला सकता है। इससे अलोक आकाशमें यह सामर्थ्य ही नहीं है ऐसा हम किस तरह माने ? कदाचित् यो मान भी लिया जाय किन्तु जब धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायकी विद्यमानता होनेपर भी अवगाह प्राप्त करनेके लिये आतुर हुये भावोंको यदि वह आकाश भवगाह न दे तो। परन्तु यहाँपर तो ऐसा नहीं है अतः ऊपर किया हुआ प्रश्न ही निरर्थक है। काल यह ढाई द्वीपमें प्रवर्तनेवाला भाव है, परम सूक्ष्म है, इसके विभाग नहीं हो सकते और यह एक समयरूप है । समयरूप होनेसे ही इसके साथ अस्तिकाय शब्दका सम्बन्ध नहीं लग सकता, क्योंकि प्रदेशोके समुदायका नाम अस्तिकाय है यह बात हम पहलेही कह चुके हैं । इस विषयमें शास्त्र में भी कहा है कि 'काल फक्त मनुष्य लोकमें व्याप्त रहा हुआ भाव है और यह एक समयरूप होनेसे इसे अस्तिकाय शब्दका सम्बन्ध घट नहीं सकता, क्योंकि काय यह समुदायका ही नाम है “ यह काल सूर्य, चंद्र, ग्रह और नक्षत्र वगैरहके उदयसे और अस्तसे मालूम हो सकता है। इसे भी कितने एक द्रव्यरूप मानते हैं। यह एक समयरूप, कान द्रव्यरूप भी है और पर्यायरूप भी । यह द्रव्यरूपसे नित्य है और पर्यायरूपसे अनित्य । अभीतकका समस्त काल और अवसे बादका कालरूपसे एक समान होनेके कारण उसे नित्य कहा जाता है और उसमें प्रतिक्षण उत्पत्ति और विनाश होनेके कारण उसे अनित्य भी कहते हैं। जिस प्रकार एक परमाणु उसमें होते हुये परिवर्तनकी अपेक्षा अनित्य है और उसका परमाणुत्व कदापि न जानेके कारण नित्य भी है, इसी तरह यह एक समयरुप काल भी नित्य और अनित्य है । यह काल नामक भाव किसी पदार्थका निर्वतक कारण नहीं है एवं परिणामी कारण भी नहीं। किन्तु अपने आप ही पैदा होते हुए पदार्थोंका अपेक्षा कारण है। क्योंक वे पदार्थ अमुक कालमें ही होने चाहिये इस प्रकारके नियमका कारण काल है । पदार्थ मात्रमें वर्तना वगैरह क्रियाओंका करने वाला काल होनेसे यह उनका उपकार कर्ता है । अथवा पदार्थ