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जीववाद
परिणामको पुष्ट करता है, अतएव ये गति वगैरह क्रियायें असाधारण निमित्त हैं। जिस प्रकारकी हकीकत धर्मास्तिकायके सम्बन्धमे बतलाई है इसी प्रकारका वृत्तान्त अधर्मास्तिकायके सम्बन्धमें भी समझना चाहिये । मात्र विशेषता इतनी ही है कि अधर्मास्तिकाय', जीव और जड़को स्थिर रखनेमें असाधारण निमित्त है । अर्थात् अपने श्राप ही स्थितिके परिणासवाले जड़ और चैतन्यको स्थिर रखने में यह अधर्मास्तिकाय अत्यन्त उपकार करता है। इसी प्रकार आकाशास्तिकायके सम्बन्धले भी समझलेना चाहिये मात्र विशेषता इतनी ही है कि उस अाकाशके अनन्त प्रदेश हैं, वह लोक और अलोक दोनों में व्याप कर रहा हश्रा है, एवं अवगाह पानेवाले जड़ और चेतनको अवगाह देकर यह आकाश उनपर उपकार करता है। जो कई प्राचार्य कालको किसी खास जुद भावरूपमें नहीं मानते किंतु जड़ और चेतनके पर्यायरुपले मानते हैं उन्होंके मन्तव्यके अनु- . सार पांच द्रव्य हैं और वे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, और जीवास्तिकाय, इस तरह पांच
१ इस अधर्म-अधर्मास्तिकायके पर्यायशब्दोंका उल्लेख करते हुये 'श्री भगवतीजी (व्याख्या प्रज्ञप्ति) सुनके २० वे शतंकके दूसरे उद्देशकमें इस प्रकार फर्माया है-" अधम्मत्यिकायस्स गं भंते । केवइया अभिवयणा पण्णत्ता ? __ गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा-अध-म्मेति वा, अधम्मत्यिकाएतिवा, पाणातिवाये जाव० मिच्छादसणसाहेति वा. इरियाअसमिती तिवा जाव. उचार पासवण x असमिती-ति वा, मण अगुत्ती-ति वा-चइ अगुत्तीतिवा, काय अगुत्ती-तिवा-याऽवण्णे तहप्पगारा सवे ते अधम्मत्थिकायस्स अभिवयणा."
अर्थात्-" हे भगवन् ? अथर्मास्तिकायके कितने अभिवचन बतलाये हैं? हे गौतम ! " उसके अनेक अभिवचन बतलाये हैं। जैसे कि अधर्म, अधमास्तिकाय, प्राणातिपात--अहिंसा याक्त मिथ्या दर्शनशल्य । इर्या असमिति यावत् उच्चार प्रक्षवण असमिति, मन अगुप्ति; वचन भगुप्ति, काय अगुप्ति, (इत्यादि ) अन्य भी जो तथा प्रकारके हैं वे सव अधर्मास्तिकायके अभि
वचन हैं।"