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जीववाद
" अर्थात्-हे भगवन् ! धर्मास्तिकायाके कितने अभिवचन (पर्यायशब्द ) जनाये हैं ? ___" हे गौतम ! (उसके ) भनेक अभिवचन बतलाये गये हैं। जैसे कि धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपात विरमण-आसिंसा, भृषवाद विरमण-सत्य, इस प्रकार यावत् परिग्रह विमरण-अपरिग्रहता, क्रोध, विवेक, यावत् मिथ्या दर्शन शल्य विवेक, इयर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान भाण्ड मतनिक्षेपना समिति, मनोगुति, वचन गुप्ति, कायगुप्ति, (इत्यादि) अन्य भी जो तथा प्रकारके हैं वे सब धर्मास्तिकायके अभिवचन हैं"।
इस उपरोक्त उल्लेखमें स्पष्ट प्रकारसे धर्मास्तिकाय और प्राणाति पात विरमण इसीसे सूत्रकारका आशय धर्मास्तिकाय, और अहिंसा वगैरहका समान भाव शापित करनेका हो यह बात मालूम होती है । अर्थात् जब इस सूत्रमें धर्मास्तिकायके विषयमें इस प्रकारका उल्लेख है तब यह सूत्र दूसरे सूत्रग्रन्योंमें धर्मास्तिकायके सम्बन्ध एक जड द्रव्य होनेकी व्याख्या भी जगह जगह उपलब्ध होती है इससे इन दो व्याख्याओंमें कौनसी व्याख्या व्यवस्थित और कौनसी अव्यवस्थित है यह बात तो बहुश्रुतोंके हाथमें है। __ रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि गुण रहे हुए हैं । क्योंकि
प्राकार और रुप वगैरह गुणोंकी सदैव सहचरता रहती है, जहाँ जहाँ रुप होता है वहाँ सब जगहपर स्पर्श, रस और गन्ध भी होते हैं और इस प्रकार परमाणु तकमें भी इन चारोंका सहचरत्व रहता है। ये धर्मास्तिकाय नामक भावमें गुण और पर्याय रहे हुये हैं अतः इसे द्रव्य भी कहते हैं (जो स्वभाव वस्तुके साथ ही पैदा होनेवाला होता है उसका नाम गुण है और जो धर्म वस्तुमें क्रमसे पैदा होता है उसका नाम पर्याय है) गुण और पर्यायवाले भावको द्रव्य कहनेकी हकीकत तत्वार्थसूत्रमें भी उपलब्ध होती है। जिसका दूसरा भाग न हो सके ऐसे परमाणु खण्डको अस्ति अथवा प्रदेश कहते हैं और उसके समुदायको काय कहते हैं। अर्थात् अस्तिकाय शब्दका समुच्चय अंर्थ 'प्रदेशका समूह' होता है । यह धर्मास्तिकाय नामक भाव समस्त लोकाकाशमें व्याप्त रहनेके कारण इसके प्रदेश भी लोकाकाशके प्रदेशोंके समान ही परिमाणवाले होते हैं । यह धर्मास्तिकाय नामक भाव गति