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( २४ । आत्रवादीनि पचतत्त्वानि तु एतद्द्वयनिमित्तकानि । तदजीवतत्त्वं पंचविघं । पुद्गलो धर्मः अधर्मः आकाशं कालश्चेति । पूर्वोक्त जीवतत्त्वमिमानि पञ्च च मिलित्वा षड्द्रव्याणीति प्रोच्यते, गुणपर्ययवत्त्वात् सत्त्वाद्वा। सत्त्वं चोत्पादव्ययध्रीव्यात्मकत्वात् । को गुणः कश्च पर्याय इति चेत्, सहभाविनो गुणाः क्रमभाविनश्च पर्यायाः । अत्रषामजीवद्रव्याणां संक्षेपतो विवेचन विधीयते
पुद्गलद्रव्यं-रूपरसगंधस्पर्शवत्वं पुद्गलत्वं । यत् किचित् स्पृश्यते रस्यते गंध्यते दृश्यते श्रूयते वा तत्सर्वं पुद्गलात्मकमेव ।
सब अजीव तत्त्व कहा जाता है । मुख्य रूप से ये दो ही तत्त्व हैं। बाकी आस्रव वगैरह पांच तत्त्व तो इन दोनों की पर्यायें हैं । वह अजीव तत्त्व पांच प्रकार का है-पुद्गल, धर्म, अधर्म,
आकाश और काल । पहले कहा गया जीव तत्व तथा ये पांच मिलकर छह द्रव्य हैं ऐसा कहा जाता है गुरणपर्यायवान् होने से अथवा सत् होने से । उत्पाद व्यय ध्रौव्यवान् को सत् कहते हैं। गुरण क्या है-पर्याय क्या है ऐसा प्रश्न होने पर, जो सदा द्रव्य के साथ रहते हैं कभी अलग नहीं होते वे गुण कहे जाते हैं
और जो एक के बाद एक होती है वे पर्याय कही जाती हैं। यहा इन अजीव द्रव्यो का संक्षेप मे कथन किया जाता है:
पुद्गल द्रव्य जो रूप, रस, गंध, स्पर्श से युक्त हो उसे पुद्गल कहते है। जो कुछ छूया जाता है, चखा जाता है, सूघा जाता है, देखा जाता है अथवा सुना जाता है वह सव ही पुद्गल है।