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( २५ ) नन्वस्तु सर्शरसगंधवांना पुद्गलात्मकत्वं शब्दस्य तु आकाशगुणत्वात् कथ पुद्गलत्वमितिचेन्न, शब्दो नाकाशगुणः मूर्तिमत्वात् । ननु अमूर्तः शब्द इतिचेन्न मूर्तिमद्महणावरोधव्याघाताभिभवादिदर्शनात् शब्दस्य मूर्तिमत्वात् । शब्दो हि मूर्तिमता इंद्रियेण गृह्यते, मूर्तिमता कुड्यादिना चाबियते, मूर्तिमता प्रतिकूलवाय्वादिना तस्य व्याघातो भवति, बलीयसा ध्वन्यंतरेरणा तस्याभिभवो दृश्यते इति तस्य मूर्तिमत्त्वं तर्कसिद्ध ततश्च पुद्गलत्वं ।
तथैव पुण्यापापाख्यस्य कर्मणोऽपि पुद्गलात्मकत्वमेव ।। । स्यादेतत् कर्मण: पुद्गलात्मकत्वमसिद्धमात्मगुरणत्वात्तस्येति न वक्तव्यं, तस्यात्मगुणत्वाभावात् । किं कारणमितिचेत्-प्रमूर्तर
शंकाकार शंका करता है कि स्पर्श रस गन्ध वर्ण तो पुद्गल की पर्याय हो सकती है परन्तु शब्द तो आकाश का गुण है वह पर्याय कैसे होगा? ऐसा कहना ठीक नही, शब्द प्राकाश का गुण नही है मूर्तिक होने से । कोई कहे कि शब्द अमूर्त हैऐसा नहीं हो सकता। पुद्गल के द्वारा ग्रहण किया जाने से, रुकने से, टकराने से, दबने से शब्द मूर्तिक ही है। निश्चय पूर्वक शब्द मूर्तिक श्रोत्र इन्द्रिय से ग्रहण किया जाता है, मूर्तिक दीवार वगैरह से रुकता है, मूर्तिक प्रतिकूल हवा वगैरह से वह टकराता है, बलवान् दूसरे शब्द से उसका दब जाना प्रतीत होता है। इसलिए उसका मूर्तिक होना तर्क सिद्ध है और इसीलिये वह पुद्गल की पर्याय है।
उसी प्रकार पुण्य पाप नामक कर्म भी पुद्गल की पर्याय ही हैं। शंका है कि कर्म पीदगलिक नही हो सकता ; क्योकि वह आत्मा का गुण है। ऐसा नही कहना चाहिए; क्योकि वह आत्मा का गुण नहीं है। क्यों नहीं ऐसा पूछो तो-अमूर्त आत्मा