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। २३ ) सेवितचरणाब्ज. एपोऽननज्ञानदर्शनसुखवीर्याख्याऽनतचतुष्टय. समन्वितात्माऽहंत, जिनेद्र, प्राप्त, इत्यादि शब्द. व्यवह्रियते अर्हायोग्यत्वात् अरिहननाद्रजोरहस्यहरणाच्च परिप्राप्तानंतचतुष्टयस्वरूप सन् इंद्रादिनिर्मितामतिशयवती पूजामहतीतिनिरुक्तिविषयत्वात्-कर्मजेतणा सम्यग्दृष्टयादीनामधीशत्वात, पागमेशित्वाच्च । अयमपि सयोगायोगकेवलिभेदेन द्विविधः । अशरीरपरमात्मनस्तु पूर्वोक्ता सिद्धा एव ।
अजीव तत्त्वम् आत्मतत्त्वातिरिक्त यत्किंचिद् दृश्यमदृश्य चास्ति तत् सर्व मजीवतत्त्वं प्रोच्यते। प्रामुख्येनै तवयमेव तत्त्वम् । अवशिष्टानि करते है और जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य नामक अनन्त चतुष्टय से संयुक्त होते हैं ऐसा वह पारमा अर्हत, जिनेन्द्र, प्राप्त वगैरह शब्दों से कहा जाता है। पूजा के योग्य होने से मोहनीय के नाश से तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण एव अन्तराय का नाश करने से अनन्त चतुष्टय स्वरूप को प्राप्त करते हुए इन्द्रादिकों द्वारा की गई दिश्य पूजा के योग्य, इस निरुक्ति के धारक होने से, वह अहंत कहा जाता है। कर्म जीतने वाले सम्यग्दृष्टि लोगो के नाथ होने से वह जिनेन्द्र कहा जाता है और आगम का प्रणेता होने से वह आप्त कहा जाता है । यह सकल परमात्मा सयोग केवली प्रयोग केवली भेद से दो प्रकार का है। अशरीर या निकल परमात्मा तो पहले कहे गए सिद्ध ही है।
अजीव तत्त्व मात्म तत्व को छोडकर जो कुछ दिखाई पडनेवाला अर्थात् स्थुल तथा न दिखाई पड़नेवाला अर्थात् सूक्ष्म पदार्थ है वह