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( १५ ) ज्ञानाविचलपर्यायात्मकेन शुक्लध्यानाग्निना निर्दग्धकमन्धनो यदा संमुपात्तमनुष्यशरीर परित्यज्य चरमशरीरात् किंचिन्यूनपरिमाणो लोकाग्रस्थाने सिद्धत्वं प्राप्नोति तदा तस्याष्टकर्म विनाशादष्टौगुणा प्रादुर्भवति-ज्ञानावरणक्षयादनंतज्ञानं. दर्शनावरणक्षयादनंतदर्शनं, अन्तरायक्षयादनंतवीर्य, वेदनीयक्षयादव्या बाधत्वमिंद्रियजनितसुखाभावो वा, मोहनीयक्षयात् परमं सम्यक्त्व मुखं वा। प्रायुः क्षयात् परमसौक्ष्म्यमुत्पत्तिमरणहतिर्वा । नामक्षयात् परमावगाहनममूर्त्तत्वं वा । गोत्रक्षयादगुरुलघुत्वमुभयकुलाभावो वा।
अयं जीव एवात्मशब्देनाऽपि प्रोच्यत इति पूर्वमुक्त । अध्यात्मभाषया एष आत्मा विविधोप्यस्ति बहिरात्मा, अंतरात्मा. दो प्रकार के तप से शक्ति प्राप्त करके, श्रुतज्ञान की निश्चल पर्याय स्वरूप शुक्लध्यान रूपी अग्नि, के द्वारा कर्म रूपी इन्धन को भस्म करता हुआ जब प्राप्त मनुष्य शरीर को छोडकर अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार का धारी होकर लोक के अग्रभाग मे सिद्धत्व को प्राप्त होता है। उस समय उसके आठ कर्मों के नाश से आठ गुरण प्रकट होते हैं । ज्ञानावरण कर्म के नाश से अनन्त ज्ञान, दर्शनावरण के नाश से अवन्त दर्शन, अन्तराय के नाश से अनन्त वीर्य, वेदनीय के नाश से अव्याबाधत्व या इन्द्रिय जनित सुख का अभाव, मोहनीय के नाश से क्षायिक सम्यक्त्व या अनन्त सुख, आयु के नाश से परम , सूक्ष्मत्व अथवा जन्म मरण का विनाश, नाम के नाश से प्रवगाहनत्व या अमूर्तत्व, गोत्र के नाश से अगुरुलघुत्व या उच्चकुल नीच कुल का अभाव होता है। 30- यह जीव आत्मा नाम से भी कहा जाता है-ऐसा पूर्व में T कहा गया है। अध्यात्म वाणी से यह आत्मा तीन प्रकार का * भी है-बहिरामा, अन्तरात्मा और परमात्मा जो शरीर 7 जैसा . २
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