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परमात्मा वेति । शरीरादौ य प्रात्मबुद्धि करोति स बहिरात्मा, तद्विपरीतो जातात्मेतरविवेक अंतगत्मा, विमुक्तकर्ममलकलङ्कश्च परमात्मा प्रोच्यते । परमात्मा साध्यः अंतरात्मा च साधन, . बहिरात्मा तु हेयः । न चैतेषु त्रिपु आत्मसु द्रव्यादिशात् कोपि भेदोऽस्ति । पर्यायार्थादेशात्त भेदः स्पष्ट एव । एक एवात्मा पर्यायेण विरूप: प्रोच्यते । यथा मनुष्यत्वापेक्षया सर्वे मनुष्याः समानाः । राजापि मनुष्यो रङ्कश्चापि मनुष्यो, न कश्चन तत्र भेदोऽस्ति । मनुष्यगरणनावसरे समान्येनैव सर्वेषां गणना विधीयते । तथैव आत्मत्वसामान्येन नैते कंचनापि भेदमर्हति । सर्वेष्वात्मसु परमात्मत्वाविर्भावशक्तिविद्यते । केवलं तच्छक्तिप्रकटनाय प्रयत्नोऽपेक्ष्यः । नचावेश्वराख्यो भिन्न प्रात्मा ।
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वगैरह मे आत्म बुद्धि करता है वह बहिरात्मा है। उससे उल्टा अर्थात् जिसे स्वपर का भेदज्ञान हो जाता है वह अन्तरात्मा है और जो कर्ममल की कालिमा से रहित हो जाता है वह परमात्मा कहा जाता है । परमात्मा बनना ध्येय है, अन्तरात्मा होना उसका कारण है और बहिरात्मा होना तो छोडने योग्य है। इन तीनों आत्मानो मे , द्रव्याथिक नय की अपेक्षा कोई भेद नहीं है। पर्यायाथिक नय की अपेक्षा तो भेद साफ, ही है। एक आत्माही पर्याय की अपेक्षा तीन रूप कहा जाता है। जैसे मनुष्यता की अपेक्षा सारे मनुष्य समान हैं। राजा भी मनुष्य है और गरीब भी मनुष्य है-वहा कोई भेद नहीं है। मनुष्य गणना के समय सामान्य रूप से ही सब की गणना मनुष्यों में की जाती है। उसी प्रकार सामान्य आत्मा की अपेक्षा इन तीनो में कोई भेद नहीं है। सम्पूर्ण आत्माओं में परमात्मा बनने की शक्ति मौजूद है। सिर्फ उस शक्ति को प्रकट करने का प्रयत्न करना होता है । जैन धर्म में ईश्वर नाम का