________________
( १४ ) इत्थ जीवत्यादिस्वभावैः समर्थित एप जीवो द्विविधः संसारस्थ सिद्धश्च । यो मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रै नायोनिषु संसरति स संसारी। संसारीजीव: स्थावरत्रसभेदेन द्विविधः । तत्र पृथिवीजलतेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः। कृम्यादयोद्वींद्रिय-त्रींद्रिय-चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिया, प्रसाः । पंचेंद्रिया अपि समनस्काऽमनस्कभेदेन द्विप्रकाराः। जीवाना चतुर्दशजीवसमासचतुर्दशमार्गणा-चतुर्दशगुणस्थान-विकल्पैरपि अनेकभेदा भवंति। ते च सर्वे परमागमाद्ह्याः । जीवस्याऽयं संसारित्वभेदोऽशुद्ध नयादेव । शुद्धनयात्त सर्वे जीवाः शुद्धा एव ।।
सिद्धत्वं-जीवोऽयं गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रर्भावितात्मा वाह्याभ्यन्तरद्विविधेन तपसा समुपात्तशक्तिः श्रुतसंसारी है
इस प्रकार जीवत्व वगैरह स्वभावो से समथित यह जीव दो प्रकार का है-संसारी और सिद्ध । जो मिथ्यादर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र से अनेक योनियों में परिभ्रमण करता है वह संसारी है। संसारी जीव स्थावर और प्रस के भेद से दो प्रकार का है। उनमें पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायूकाय और वनस्पतिकाम स्थावर-है। लट वगैरह को लेकर दो इन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव अस है। पंचेन्द्रिय भी सैनी असनी दो प्रकार के हैं। जीवों के चौदह जीव समास, चौदह मार्गणा और चौदह गुणस्थान के भेदों से अनेक भेद होते हैं। उन सबको परमागम से जानना चाहिए । जीव का संसारी यह भेद अशुद्धनय से ही हैं। शुद्ध नय से तो सब जीव शुद्ध सिद्ध है
यह जीव गप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय तथा चारित्र द्वारा आत्मा को साधता हुआ, बाह्य और अभ्यन्तर
-
-