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( १३ ) भोक्तृत्वं-यथाऽयमात्मा स्वकर्मणां स्वकीयभावानां च . कर्ता तथैव तेषा फलभोक्ताऽपि । व्यवहारनयात् स पौद्गलिककर्मफलं प्रभुङक्त निश्चयनयतस्तु पात्मनश्चेतनभावं । यद्यन्य: कर्ता स्यादन्यश्चभोक्ता स्यात् तदा स्वयं कृतं कर्म निरर्थक भवेत् प्रयत्नश्च सर्वोऽपि निष्फल' स्यात् ।
ऊदैवगतिस्वभावत्व-वस्तुतोऽयमात्मा ऊध्वगतिस्वभावः कर्मबंधनपारतत्र्यात्त यत्र गंतु कर्म प्रेरयति तत्रैव गच्छति । यदा तु सर्वतो कर्मबंधनमुक्तो भवति तदा स्वभावतः ऊद्वमेव व्रजति । कर्मबद्धस्तु जीव. स्वस्वकर्मानुसार विभिन्नां गति लभते।
भोक्ता है
जिस प्रकार यह आत्मा अपने कर्म और अपने भावों का कर्ता है, उसी तरह उनके फल को भोगने वाला भी। व्यवहार नय से वह पुद्गल रूप कर्मों के फल सुख दुःख को भोगता है और निश्चय नय से आत्मा के चैतन्य भाव से उत्पन्न परमामृत का भोक्ता है । यदि कर्म और कोई करे और उसका फल कोई दूसरा भोगे तो अपने द्वारा किया हुआ कर्म निष्फल होगा और उसके लिए किया गया सम्पूर्ण प्रयत्न भी व्यर्थ होगा। स्वभाव से ऊर्ध्व गमन करने वाला है।
वास्तव में तो यह आत्मा ऊर्ध्व गमन स्वभाव वाला है; लेकिन कर्म बन्धन की परतन्त्रता से कर्म जहां जाने को प्रेरित करता है वहां ही जाता है जब यह आत्मा सम्पूर्ण कमों से रहित हो जाता है तब स्वभाव से ऊपर ही जाता है । कर्मों से जकडा हुआ जीव तो अपने अपने कर्मानुसार विभिन्न गति को प्राप्त होता है।