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समो हेतु.॥ यच्चापरमनुमानमात्मा व्यापकः अणुपरिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यत्वात । तदपि न समीचीनं। प्रात्मनः सर्वथा नित्यद्रव्यत्वाभावात् । नित्यस्य क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधात, तस्य कथंचिन्नित्यानित्यात्मकत्व द्रव्यापेक्षया हि तस्य नित्यत्वं पर्यायापेक्षया चानित्यत्वम् । जैनदृष्टी सर्वेषां पदार्थानां परिणामिनित्यतास्वीकरणात् । अणूपरिमारणानधिकरणत्वमपि पर्यु दासप्रसज्यपक्षाभ्यां चित्यमान न सोस्थ्यमाभजतीति ज्ञातव्यम् ।
नाप्यात्मा वटकणिकामात्रं, कमनीयपदार्थसस्पर्शकाले प्रतिलोमकूपमालादनाकारस्य सुखस्यानुभवात् । तस्य वटरिणकामात्रत्वस्वीकारे सर्वाङ्गीणरोमाञ्चादिकार्योदयायोगात् । पालार यह हेतु साध्य सम हो जायगा। अर्थात् फिर व्यापकपने में और अमूर्तपने में कोई भेद नहीं रहता; अत: जैसे साध्य असिद्ध होता है वैसे ही हेतु भी असिद्ध हो जाता है, और दूसरा यह मनुमान कि आत्मा व्यापक है, अणु परिमारण प्रधिकरण वाला न होकर नित्य होने से, आकाश की तरह, वह भी ठीक नही है; आत्मा के सर्वथा नित्य द्रव्यपने का अभाव होने से । क्योंकि नित्य पदार्थ के क्रम और अक्रम से अर्थ-क्रिया होने का विरोध है। अतः प्रात्मा कथंचित नित्य और कथचित् अनित्य है। द्रव्य की अपेक्षा से ही आत्मा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। जैन दृष्टि में सब पदार्थों का स्थिर रहते हुए परिणमन स्वीकार किया गया है। अणू परिणाम अधिकरण वाला न होना यह हेतु भी पर्यु दास और प्रसज्य पक्ष से विचार करने पर खरा नहीं उतरता-यह जानना चाहिए।
यह आत्मा वटकरिणका ( वटबीज ) मात्र भी नहीं हैसुन्दर पदार्थो के छूने के समय शरीर के प्रत्येक रोम में पाल्हादिकारक सुख की अनुभूति होने से। आत्मा को वटकरिणका.